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________________ per me kan kally, makin ३०० सहजानन्दशास्त्रमालायां नोपरागत्वात् परमभट्टारक महादेवाधिदेवपरमेश्वरात्सिद्ध साधुश्रद्धाने समस्त भूतग्रामानुकम्पाव रणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः ।। १५७ ।। ओगो उपयोगः यो सः सुहो शुभः- प्रथमा एकवचन | जाणादि जानाति पेन्छदि पश्यति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जिणिदे जिनेन्द्रान् सिद्धे सिद्धान् अणगारे अनगारान- द्वितीया बहुवचन । जीवेम् जीवेषु सप्तमी बहुवचन । तस्स तस्य षष्ठी एकवचन । निरुक्ति में घतिस्म इति सिद्धः पिव गती गतौ भ्वादि | समास -- जिनानां इन्द्रा जिनेन्द्राः तान् नि अगारः येषां ते अनगाराः ज्ञान, अनुकम्पया सहितः इति सानुकः ॥१५७।। महादेवाधिदेव, परमेश्वर महंत, सिद्धको और साधुको श्रद्धा करने में तथा समस्त जीवसमूहकी अनुकम्पाका आचरण करनेमें प्रवृत्त हुआ उपयोग शुभोपयोग है । प्रसङ्गविवरण- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में परद्रव्यके संयोगका कारणभूत उपयोगविशेषका निर्देश किया गया था | अब इस गाथामें उन उपयोगविशेषों में से शुभोपयोगके स्वरूपका प्र पण किया गया है। तथ्यप्रकाश -- ( १ ) ग्ररहंत, सिद्ध, साधुकी श्रद्धा में प्रवृत्त तथा समस्त जीवों के प्रति श्रनुकम्पा के आचरण में प्रवृत्त हुआ उपयोग शुभोपयोग कहलाता है । ( २ ) शुभोपयोग में शुभ उपरागका प्रवर्तन है । ( ३ ) शुभ उपरागका निमित्त कारण मोहनीय कर्मको क्षयोपशमदशा है । ( ४ ) श्रनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित सकलपरमात्मा के गुणों में विनय शास्था अनुराग भक्ति होना श्रद्भक्ति है । (५) ज्ञानावरणादि ग्रष्ट कर्मसे रहित, सम्यक्त्वादिक ऋष्ट गुण में अन्तर्भूत अनन्त गुणोंसे सहित ग्रात्मज्योतिके प्रति भक्ति होना सिद्धभक्ति है । ( ६ ) निष्परिग्रह, ज्ञानार चारादि पांच श्राचारोंके धारणहार साधुजनोंके गुणों में भक्ति होना साधुभक्ति है । ( ७ ) स स्थावर जीवोंके प्रति दयाभाव होना अनुकम्पा है । सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोग श्रात्माका विभाव परिणमन है । ( २ ) शुभोपयोगका निमित्त विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाला मोहनीयकर्म है । ( ३ ) शुभोपयोगका श्राश्रयभूत कारण देव शास्त्र गुरु आदि होनेसे उनमें भक्ति होनेको शुभोपयोग कहा जाता है । दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) | २ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय, निर्मि दृष्टि (२४, ५३८ ) । ३- पराधिकरणत्व असद्भूत व्यवहार (१३४) । प्रयोग-- विशुद्ध निराकुल होनेके लिये अशुभोपयोग से हटकर शुभोपयोग के भावोंसे गुजरकर शुद्धोपयोगी होनेका पौरुष होने देना ।। १५७ ॥ शुभयोगका स्वरूप कहते हैं [ यस्य उपयोगः ] जिसका उपयोग [विषयeuterone: ] far कषायमें मग्न है, [दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्टितः ] कुश्रुति, कुविचार और
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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