SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सहजानन्दशास्त्रमाल प्रयां प्रथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूपमालोच यति---- अप्पा उत योगप्पा उपयोगोशागदसणं भशिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवयोगो अपणो हबदि ॥१५॥ प्रात्मा उपयोगात्मक, उपयोग कहा सादर्शनात्मयः । शुद्ध प्रशुद्ध द्विविध यह, होता उपर हेग यात्माका ।।१५५॥ भारमा उपयोगात्मा उपयोगो ज्ञानदर्शनं भणितः । सोऽवि शुभो भाभा बा उपयोग आत्मनो भवति । १५५ पात्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः उपयोगी हि तावदात्मनः स्वभावाचे तन्यानुविधायिपरिणामस्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च साकारनिराकारत्वेनोभयरूपत्वाच्चतन्यस्य नामसंज्ञ-अप्प उवओगप्प उवओग णाणदंसण भगिद त वि सुह अशुह वा स्यओंग अप्प 1 धात संज्ञ-हव सत्तायां, मण काथने । प्रातिपदिक--आत्मन् उपयोगात्मन उपयोग ज्ञान दर्शन भणित तत् अपि शुभ अशुभ वा उपयोग आत्मन् । मूलधातु-भण शब्दार्थः, भू सत्तायां । उभयपदविवरण----अप्पा आत्मा है बह मैं हैं। ८- जिसमें परचेतनत्वका या अचेतनत्वका अन्वय है विशेष है परिणमन है वह अत्य है। - अन्य मेरा कुछ नहीं है इस परिज्ञान में मोह नहीं रहता, क्योंकि स्व व परका स्पष्ट विभाग हो गया है । १०--स्वपरभेदविज्ञानी प्रात्मा अन्य द्रव्य में मुग्ध नहीं हो सकता। सिद्धान्त----१-- लक्षणभेदसे द्रव्योंमें परस्पर विलक्षणता विदित होती है। दृष्टि---१- बैलक्षण्यन य (२०३) । प्रयोग -सर्वं परद्रव्य व परभावोंसे विविक्त निज चैतन्यस्वभाव में स्वत्व अनुभव कर सहज प्रानन्दमय रहना ।।१५४।। __ अब आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रष्य के संयोगके कारणके स्वरूपको आलोचना करते है.---[प्रात्मा उपयोगात्मा] प्रात्मा उपयोगस्वरूप है; [उपयोगः] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भरिणतः] ज्ञान-दर्शन कहा गया है; [अपि] और [आत्मनः) अात्माका [सः उपयोगः] वह उपयोग शुिभः अशुभः वा] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है। . तात्पर्य---परद्रव्यके सेयोगका कारण जीवका शुभ अथवा अशुभ उपयोग है। टोकार्थ-वास्तव में परद्रव्यके संयोगका कारण प्रात्माका उपयोगविशेष है। उपयोग तो वास्तवमें प्रात्माका स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यका अनुसरण करके होने वाला परिणाम है। और वह ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार रूप होनेसे उभयरूप । है । अब यह उपयोग दो प्रकारसे विशेषित होता है शुद्ध और अशुद्ध । उसमेंसे शुद्ध उपयोग निर्विकार है; और अशुद्ध उपयोग सविकार है । वह अशुद्धोपयोग शुभ और प्रशुभ-दो प्रकार, MADHUBANSARADARSH A NKARANEANI PASHAMARWADI
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy