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________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अयत्वेन च त्रितयों विकल्पभूमिकामधिरूढ़ः परिज्ञायमानः परद्रव्ये मोहमपोह्य स्वपर विभागसमवति ततः स्वरूपास्तित्वमेव स्वपरविभागसिद्धये प्रतिपदमवधार्थम् । तथाहि---- यचदाननस्वान्दवलक्षण द्रव्यं यश्चेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो यश्चेतनत्वव्यतिरेकलक्षणः पर्यायस्तत्त्रयामक, या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पशिना चेतनत्वेन स्थितियोवुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादध्ययौ तलयात्मक च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वमन्यः । यच्चाचेतनत्वान्वयलक्षणं व्य योऽचेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो योऽचेतनत्वयनि रेकलक्षणः पर्यायस्तत्रयात्मकं, या पूर्वी सध्यतिरेकस्पशिनाचेतनत्वेन स्थितिर्यावुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादब्ययाँ तत्त्रयात्मक म स्वरूपास्तित्वम् यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्वयमन्यः । नास्ति में मोहोऽस्ति स्वपर. विभागः ॥ १५४॥ "साविवरण-तं सब्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धं दवसहावं द्रव्यस्वभावं समवखादं समास्यातं सवियाः सविकल्य-द्वितीया एकवचन । जो यः सो स:-प्रथमा एक० । अगणदविम्हि अन्यद्रव्ये, तिहा विधा ण न अव्यय । अपणदवियम्हि अन्यद्रव्ये-सप्तमी एकवचन । निरुक्तिविशेषेण काल्पनं विकल्पः । समास---- सदभावन निबद्धः सद्भावनिबद्धः से, द्रव्यस्य स्वभावः द्रव्यस्वभावः तं द्रक्ष्यस्वभावम् ॥१:४।। वह त्रयात्मक स्वरूप-अस्तित्व तथा पूर्व और उत्तर व्यतिरेकको स्पर्श करने वाले चेतनस्वरूप से जो धोव्य और चेतनके उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूपसे जो उत्पाद और व्यय, वह त्रयासाक स्वरूप अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूं। और, अचेतनत्वका अवय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य, अचेतना विशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा जो गुरण, और अचेतनत्वका व्यतिरेक जिसका लक्षधा है ऐसी जो पर्याय, वह यात्मक स्वरूपास्तित्व सया पूर्व और उत्तर व्यतिरेकको स्पर्श करने वाले अचेतनत्वरूपसे जो नौवय और अनेतनके उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूपसे जो उत्पाद और व्यय, वह श्यात्मक स्वरूपास्तित्व जिस पुद्गलका स्वभाव है वह वास्तव में अन्य है । मुझे मोह नहीं है और सही स्वपरका विभाग है । प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें जीवको गतिविशिष्ट पर्यायोंके प्रकार बताये गये में। अब इस गाथामें बताया गया है कि अन्य द्रव्योंके साथ संयुक्तपना होनेपर भी स्वरूपाअस्तित्व स्वपरविभागका हेतु होता है । तथ्यप्रकाश---१-- स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व उस लक्ष्य पदार्थका निश्चायक होता २- स्वरूप द्रव्यका स्वभाव हो है। ३- द्रव्यस्वभाव सब द्रव्योंका अपना अपना जुदा जुदा है। ४- सर्वद्रव्य स्वद्रव्य गुणपर्यायात्मक हैं, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं । ५.-- विसी द्रध्य के द्रव्य गुण पर्यायका अन्य द्रव्यसे कुछ सम्बन्ध नहीं है । ६- सब दव्योंका स्वरूपास्तित्व स्वपर विभागका कारण होता है । ७- जिसमें स्वचेतनत्वका अन्वय है विशेष है परिणमन
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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