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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभागहेतुत्वेनोद्योतयति---- तं सब्भावणिबद्ध दव्वसहावं तिहा समक्खादं । जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णादवियम्हि ॥१५॥ निजस शावकनिबन्धक, त्रिधा द्रव्यका स्वभाव बतलाया। सविशेष जानता जो, वह परमें मुग्ध नहि होता ॥१५४।। तं सद्भावनिबद्धं द्रव्यस्वभावं विधा समाख्यातम् । जानाति यः सविकल्प न मुह्यति सोऽयन्द्र दये || यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थ निश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्खमा एच, सद्भावनिबद्धत्वाद्रव्यस्वभावस्य । यथासी द्रव्यस्वभादो द्रव्यगुणापर्यायत्वेन स्थित्युत्पादः । नामसंज्ञ-त सम्भावणिवद्ध दम्चसहाय तिहा समक्खाद ज सविधप्प ण त अ०७ दकिय । धातसब क्खा प्रकथने, जाण अवबोधने, कप्प सामध्ये, मुक मोहे । प्रातिपदिक-तत् सद्भावनिबद्ध द्रव्यस्वभाव। विधा समाख्यात यत् सविकल्प म तत् अन्यद्रव्य । मूलधातु...स्या आख्याने, कलपू सामथ्य, मुह वैचित्य । प्रयोग--पुद्गलकर्मोदयजनित नर नारकादि पर्यायोंको आत्मस्वभावसे भिन्न जानकर उनसे उपेक्षा करके सहज ज्ञानानन्दमय प्रात्मतत्वमें उपयुक्त होना ।।१५३।। ___ अब आत्माके अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तपना होनेपर भी अर्थनिश्चायक अस्तित्वको स्व-पर विभागके हेतुके रूपमें समझाते हैं-[यः] जो जी [तं] उस पूर्वकथित सिद्धाय निबद्ध] स्वरूपास्तित्वसे निष्पन्न [विधा समाख्यातं] तीन प्रकारसे कथित, [सविकल्प] मेवों वाले [द्रध्यस्वभावं] द्रव्यस्वभावको [जानाति] जानता है, [सः] वह [अन्य द्रव्ये] अन्यो द्रव्यमें [न मुह्यति] मोहको प्राप्त नहीं होता । ___तात्पर्य----जो अपने स्वरूपास्तित्वको यथार्थ जानता है वह परपदार्थों में मोह नहीं करता । टीकार्थ-द्रव्यको निश्चित करने वाला, स्वलक्षणभूत जो स्वरूपास्तित्व कहा गया है वह वास्तव में द्रव्यका स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्यका स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न है । यः गुण-पर्याय रूपसे तथा धौव्य उत्पाद व्ययरूपसे प्रयात्मक भेदभूमिकामें प्रारूढ़ द्रव्यस्वभाव ज्ञात होता हुआ चूंकि परद्रव्यके प्रतिके मोहको दूर करके स्व-परके विभागका हेतु होता है। इस कारण स्वरूपास्तित्व ही स्व-परके विभागकी सिद्धि के लिये पद पदपर लक्ष्य में लेना चाहिये । स्पष्टीकरण-चेतनत्वका अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य, चेतनाविशेषतः जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण, और चेतनत्वका व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय ।।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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