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________________ RECEMBER ENAB प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका २६३ पर पर्यायव्यक्तीर्दर्शयति णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा । पजाया जीवाणं उदयादिहि णामकम्मस्स ॥१५३।। तर नारक तिर्यक् सुर, नाना संस्थान आदि रूपोंमें । हई जीव पर्यायें, नामकर्मोदयादिसे ये ॥ १५३ ।। मलारकतिर्यक सुराः संस्थानादिभिरन्यथा जाताः । पर्याया जीवानाभुदयादिभिनामकर्मण: ।। १५३ ।। नारकस्तियङमनुष्यो देव इति किल पर्याया जीवानाम् 1 ते खलु नाम कर्मपुद्गलविषाककारणत्वेनानेकद्रव्य संयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदसः क्षोदखिल्व संस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरन्यथैव भूता भवन्ति ।।१५३।। MAL नामसंज-गरणारयतिरियसूर सठाणादि अणहा जाद पज्जाय जीव उदयादि शामत्रम्म । घातसमजा प्रादुर्भावे। प्रातिपदिक--नरनारकतिर्यक्सुर संस्थानादि अन्यथा जात पर्याय जीव उदयादि नामकर्मन । भलधातु-जनी प्रादुर्भावे । उभयपदविवरण—ण रणारयतिरियसुरा नरनारकतियारा: पजाया पर्याया:--प्रथमा बहुवचन । संठाणादीहि संस्थानादिभिः उदयादिहि उदयादिभिःसृतीया बहबावन । अण्णहा अन्यथा अव्यय । जादा जाता:-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया । जीवाणं जीवानां-बष्ठी बहवचन। णामकम्मस्स नामकर्मण:-षष्टी एकवचन । निरुक्ति–नराम् कान्ति इति नारकाः के शब्दे वादि, तिर अंचतीति तिर्यक, सुरति इति सुरः पुर ऐश्वर्यदीप्त्योः , उद् अयन उदया: इण गती । समाससरन नारवाश्च तिर्यक् च सुरश्चेति नरनारकतिर्यक् सुराः । १५.३।। । तथ्यप्रकाश–१- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य व देव ये ४ जीवकी असमान जातीय विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय हैं । २-- जीव व अनेक पुद्गलोंके बन्धसे नारकादि पर्याय होनेपर भी वे जीव की अशुद्ध पर्याय कहलाती हैं, क्योंकि इस संयोगके होने में जीवविभाव मुख्यतया कारण हैं । ३- विभिन्न पौद्गलिक नामकर्मके उदयविपाकके अनुसार इन जीव भवोंमें भिन्नभिन्न प्रकारके संस्थान हो जाते हैं जैसे कि लकड़ी कोयला आदि भिन्न भिन्न ईवनोंके संयोग से अग्निका प्राकार भिन्न भिन्न हो जाता है । ४- भिन्न भिन्न संस्थान होनेपर भी यह भगवान प्रात्मद्रव्य अपने सहजज्ञानानन्दस्वरूपको नहीं छोड़ता जैसे कि भिन्न प्राकार होनेपर प्रति अपने प्रोष्ण्यस्वरूपको नहीं छोड़ती। ५- नरनारकादि पर्याय कर्मोदयके निमित्तसे होती हैं, इस कारण ये पर्यायें प्रात्माका स्वभाव नहीं हैं। सिद्धान्त-(१) नर नारक आदि व्यवहारसे जीव कहे जाते है। ष्टि-१- विकल्पनय, स्थापनानय, विशेषनय, अनियतिनय, एकजातिपर्याय अन्यजातिद्रव्योपचारक असदभूत व्यवहार, एकजातिद्रव्ये अन्यजाति द्रव्योपचारक असद्भुत व्यव. SHERE
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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