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________________ प्रवचनसार...सप्तदशाङ्गी टीका ३८१ अथ श्रमरणो भवितुमिच्छन् पूर्व किं कि करोतीत्युपदिशति प्रापिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज णाणदसणाचरित्ततक्वीरियायारं ॥२०२॥ पूछकर बन्धुवोंको, छूटकर गुरु कलत्र पुत्रोंसे । चारित्र ज्ञान दर्शन, तप वीर्याचार आश्रय करि ॥२०२१॥ आपुच्छय इन्वर्ग विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रैः। आभार ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचा रम् ।। २०५ ।। यो हि नाम श्रमणो भवितुमिच्छति स पूर्वमेव बन्धुवर्गमापृच्छते, गुरुकलत्रपुरेभ्य प्रा. त्मानं विमोच यत्ति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवी यो चार मासीदति । तथाहि- एवं बन्धुवर्गमापुच्छ्ने, अहो इदंजन शरीर बन्धुवर्गतिन अात्मान:, अस्म जनस्य प्रात्मा न किंचनापि युग्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत तत प्रापृष्टा यूयं, अयमात्मा प्रद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः ग्रात्मान मेवात्मनोजादिबन्धुमुपसर्पति । ग्रहो इदंजन परोरजन कस्यात्मन्, अहो इदंजन शरीर जनन्या पात्मन्, नामसंज्ञ-बंधुवरंग विमोचिद गुरुकलत्तपुत्त णाजदसणारत्ततयबीरियायार । धात्तुसंझ--आ सद गमन विशरणयोः । प्रातिपदिक-बन्धुवर्ग विमोचित गुरुकन पुत्र ज्ञानदर्शन चारित्रतपोचौर्याचार । मूलके शरीर की जननी के प्रात्मा ! इस पुरुषका प्रात्मा तुम्हारे द्वार। उत्पन्न नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिये तुम इस प्रात्माको छोड़ो। जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा अाज अात्मारूपी अपने ननादिजनके पास जा रहा है। ग्रहो ! इस पुरुषके शरीर की रमणीके प्रात्मा ! तू इस पुरुषके अात्माको रमण! नहीं कराती, ऐसा तू निश्चयो जान इसलिये तु इस अात्माको छोड़ । जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा ग्राज अपनी स्वानुभूति रूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुष के शरीर के पुत्रके प्रात्मा ! तू इस पुरुषके प्रात्मासे जन्य नहीं है, ऐसा तू निश्चयसे जान । इसलिये तू - इस मामाको छोड़ । जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा अाज अात्मारूपो अपने प्रवादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ोंसे स्त्रीसे और पुत्रसे अपने को छुड़ाता है । ___ तथा महो काल, विनय, उपधान, बहमान, अनि हव, अर्थ, व्यंजन, पोर तदुभयसे संपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं कि तू शुद्धामाका नहीं है; तथापि मैं तुझे तभी तक अंगीकार करता हूं जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर ल । अहो निःशक्तित्व, नि:कांक्षितत्व, निविचिकित्सकत्व, निर्मदृष्टित्व, उपयंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावना लक्षण वाले दर्शनाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूं कि तू शुदात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूं जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध PRESEARRIAnna India
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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