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________________ ३८० सहजानन्दशास्त्रमालायां ज्यमवान्तरमन्थसन्दर्भोभ्यसंभावितसोस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्न परषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्मन: प्रणेतारो वयमिमे तिष्ठाम इति ॥२०१॥ मूलधातु-- नम नमने, प्रति पद गती । उभयपदविवरण-एवं पुणो पुनः जाँद यदि--अव्यय । पमिय प्रणम्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदन्त । सिद्धे सिद्धान जिणबरवराहे जिनवरवृषभान् समणे श्रमणान्द्वितीया बहु० । पडिवज्जद् प्रतिपद्यताम्--आज्ञाथें अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सामण्णं श्रामण्यं द्वितीया एकवचन । इच्छदि इच्छति-वर्तमान अन्य एक क्रिया । दुबखपरिमोक्खं दुःखपरिमोक्ष-द्वितीया एक० । निरुक्ति- वरणं बर: वृन वर कयादि । वर्षयन वृषः धर्मः वृष शक्तिबन्धमे प्रजनन सामध्ये च, वृषो भाति यस्मात्स वृषभः । समास-दुःखेभ्यः परिमोक्षः दुःखपरिमोक्षः तं दु० ।। २०१॥ a mmarAIGAMMARRAM मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहनेरूप श्रामण्यको प्राप्त होता है । (४) मान ज्ञाता द्रष्टा म्हनारूप परमश्रामण्य निर्ग्रन्थ दिगम्बर महाव्रती हुए बिना नहीं हो सकता, अतः उसकी विधि जानना व करना आवश्यक है, वह विधान इस चारित्राधिकारमें कहा जावेगा । सिद्धान्त -- (१) अात्मस्वभावके अनुरूप, प्रात्मस्वभावके अविरुद्ध प्राचरणसे परिपूर्ण प्रात्मविकासरूप सिद्धि होती है । दृष्टि---- १- पुरुषकारनय, क्रियानय, शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (१८.३, १६३, २४ब)। . प्रयोग—सर्व दुःखोंसे छूटने के लिये पञ्चगुरुस्मरणपूर्वक श्रामण्यदीक्षा लेकर परमसा. म्य नामक श्रामण्य भावरूप परिणमना ।।२०१॥ 3. अब श्रमण होनेके लिये चाहता हुआ पहले क्या क्या करता है उसका उपदेश करते हैं-श्रमण होनेका इच्छुक पुरुष [बन्धुवर्गस् प्रापृच्छय] बंधुवर्गसे विदा मांगकर [गुरुकलापुत्रः विमोचितः] बड़ोंसे तथा स्त्री और पुत्रसे मुक्त होता हुमा [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यचा. रम् प्रासाध] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार औरवीर्याचारको अंगीकार करके... तात्पर्य----मुनि होनेका इच्छुक परिचितोसे विदा लेकर पंचाधार अंगीकार करता है। ___टोकार्थ-जो श्रमण होना चाहता है वह पहले ही बंधुवर्गसे विदा मांगता है, गुरु जनोंसे तथा स्त्री और पुत्रोंसे अपनेको छुड़ाता है, फिर झोनाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार तथा वीर्याचारको अंगीकार करता है । इसका स्पष्टीकरण-बंधुवर्गसे इस प्रकार विदा लेता है.अहो ! इस पुरुषके शरीरके बंधुवर्गमें रहने वाले प्रात्मानों ! इस पुरुषका आत्मा किचित्मान भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चयसे जानो। इसलिए मैं तुमसे विदा लेता हूं। जिसके ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह प्रात्मा आज अपने प्रात्मारूपी अपने मनादिबंधुके पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुषके शरीरके जनकके प्रात्मा ! अहो ! इस पुरुष RaisonakamanarasianR ARRAHARI
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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