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________________ MARATORSTERS प्रवचनसारः ७५ momwwwwwwwwwwwwwww EEEEEEEET संचेतयमानो मोहरामद्वेषपरिणतत्वात् ज्ञयार्थपरिणामान लक्षणया क्रियया युज्यते । तत एव च क्रियाफलभूतं बन्ध मनुभवति । प्रतो मोहोदयात क्रियाक्रियाफले न तु ज्ञानात् ॥४३॥ Hए । भणिदा भगिता:-प्र० बहु० बदन्त क्रिया । तेसु ता-स० वतुः । विमुढो विमूद: रत्तो रक्तः इट्रों दुष्ट:-प्रथमा एकवचन । बंध बन्ध-वि० एक० । अगुभवादि अनुभवति-वर्तमान अत्यः एक क्रिया । निरुक्ति--जयतीति जिनः, बंधनं बंधः । समास-उदय गताः उदय गता जनेषु धरा तेषु वृषभाः तैः ।।४।। रूप परिसमन उन्हीं मोहनीय कर्म प्रकृतियोंमें होता है। (११) मोहनकृतिक उदय में विकृत प्रकृतिमुद्रा उपयोगमें प्रतिफलित होतो है । (१२) संसारी जीव उस प्रतिफलित प्रकृतिमुद्राको अपनी वर्तमान योग्यतानुसार यात्मसात् करता है । (५३) प्रकृति मुद्राको आत्मसात् करते ही जयार्थपरिणमन क्रिया हो जाती है। (१४) वीतराग छद्मस्थोंका शतिपरिवर्तनरूप ज्ञयार्थपरिणमन पूर्व भूत ज्ञानको अस्थिरताके संस्कारवश होता है । (१५) रागद्वेष मोहभाव नैमित्तिक हैं, प्रकृतिविपाकके प्रतिफलन हैं, आकुलतामय हैं, पराश्रयज है, अतः हेय हैं। सिद्धान्त-(१) उदयगत कर्माशों में मोही रागो द्वेषो जोव बन्धको अनुभवता है। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] । प्रयोग–बंधका कारण कांदिय नहीं, देहादि क्रिया नहीं, किन्तु मोह राग द्वेष भाव है ऐसा जानकर नैमित्तिक विकार भावोंसे उपयोग हटाकर अविकारस्वभावी स्वकीय अन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना व रखना ॥४३॥ । अब केवली भगवानके क्रिपा भी क्रियाफलको अर्थात् बन्धको उत्पन्न नहीं करती यह उपदेश करते हैं--[तेषाम् अर्हता] उन अरहन्त भगवन्तोंके [काले] उस समय [स्थाननिषयाविहाराः खड़े रहना, बैठना, विहार होना धर्मोपदेशः च और धर्मोपदेश होना [स्त्रीरण मायाचारः इव] स्त्रियोंके मायाचारको तरह [नियतयः] प्राकृतिक ही याने प्रयत्न बिना ही होता है। तात्पर्य ----अरहंत प्रभुकी बिहार उपदेश ग्रादि क्रिया रागपूर्वक नहीं, किन्तु प्राकृतिक होती है। टोकार्थ-वास्तवमें जैसे स्त्रियोंके, प्रयत्नके बिना भी, उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे स्वभावभूत ही मायाके ढक्कनसे ढका हुमा व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार * फेवली भगवानके, प्रयत्न के बिना हो उस प्रकारकी योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहना, की बैठना, विहार होना और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं । और यह सब बादलके दृष्टांत से अविरुद्ध है। जैसे बादलके प्राकाररूप परिणमित पुद्गलोंका चलना, ठहरना, गरजना और EAR पानी बरसना ये सब पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखे जाते हैं, उसी प्रकार केवली भगवानके 3888888888 4000 Magarat Siwww SAREE Rash
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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