SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्न ननसार--सनदशाङ्गी टीका तस्यानादिसिद्वतन्य सामान्य संबन्धस्याप्यात्मन: स्वयं परिच्छेत्तमश्चमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गसाध्यतयात्यन्त बिसाटलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तः परिस्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमनस्यहोवादास्यत्यान परपरिंगातिप्रतिताभिप्रायमपि पद पर प्राप्तविप्रलम्भमनुपलभगभावनामेव परमानंतोहति । अतस्तद्रं यम् ॥१५॥ सयं स्वयं वा --अव्यय । तेण लेन मुनिया म्यूतिना--तृतीया क० । 'संत जोग योग्य त नन्-द्वि० एक० । ओगिहिता जयगृत्य-असमतिकी मिया । जादि जानानि जापानि जानाति-वर्तमान लट् अन्य “पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति-प्राणवितीति जीवः समास - मुलि गत: सुमिगतः ||५|| प्रसंगविवरण-अनंतर पूर्व गाथामें अतीन्द्रिय सूखके माधनीभूत अतीन्द्रिय ज्ञानको उपादेय बताया गया था। अब इस गाथामें इन्द्रियमुखके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हेय बलाया inten NIROKSATTA : तथ्यप्रकाश---- (१) इन्द्रियज ज्ञान परोक्ष ज्ञान होनेसे होन ज्ञान है । (२) इन्द्रियन ज्ञान मत पदार्थको ही जान सकता है अमर्तकों नहीं। (३) इन्द्रियजज्ञान मर्त इन्द्रियोंके द्वारा बनता है, इन्द्रियोंके बिना केवल अमूर्तात्मशक्तिसे नहीं । (४) इन्द्रियज ज्ञान वाला जीव स्वयं अमूत होकर भी इन्द्रियात्मक मूर्त शरीरको पाता झुमा मृतं बन रहा है । (५) इन्द्रियज्ञान किसी वस्तका नवग्रह करके इतना ही जानता है, कभी और कुछ क्षयोपशमके अनुसार कुछ अधिक जानता है, कभी विशेष नहीं जानता है । (६) इन्द्रियज्ञान जाननेके लिये प्रकाश आदि बाह्य पदार्थको ईढने की व्यग्रताके कारण क्षुब्ध रहता है। (७) इन्द्रियज्ञान जानने के लिये इन्द्रियको ठीक रखने की व्यग्रतामें चल रहता है। (८) इन्द्रियज्ञान अल्पशक्ति वाला होनेसे खदखिन्न होता है । (६) इन्द्रियज्ञान परपदार्थका परिणमन करनेका अभिप्राय होनेसे इच्छानुकूल परपरिणामन न देखकर पद पदपर ठगा हुअा रहता है। (१०) इन्द्रियज्ञान परमार्थसे मज्ञान ही है । (११) इन्द्रियज्ञान दुःखव्याप्त होनेसे, अस्वभाव होनेसे हेय है । जानन , सिद्धान्त-(१) इन्द्रियज्ञान प्रशुद्ध होनेसे हय है ।। दृष्टि-----१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय [२४] ।। प्रयोग---इन्द्रियसे 4 इन्द्रियज्ञानसे उपेक्षा करके सर्वविशुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्व में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।।५।। ....... अब इन्द्रियोंकी मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रत्युत्त नहीं होनस इन्द्रियान हेय ही है, यह अवधारित करते हैं अर्थात् अपने मनमें इन्द्रियज नको म हानिर्णय रख. कर इन्द्रियज ज्ञानका दोष बताते हैं--[स्पर्शः] स्पर्श [ सगंधः] गंक [वर्णः] लविधि को महाराज
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy