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________________ सहजानन्द शास्त्रमालायां प्रथेन्द्रिय सोय साधीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्ररिन्दति - ६८ जीवो सयं श्रमुत्तो मुत्तिगदो तेा मुत्तिणा मुत्तं । श्रोगेण्हित्ता जोगं जायदि वा तण्ा जाणादि ॥५५ ॥ श्रात्मा स्वयं अमृतिक, सूर्ति मूर्तसे योग्य मूर्तीको प्रवग्रह हि जाने या नहिं जाने ज्ञान वह क्या है ।। ५५ ।। जीवः स्वयममूर्ती मूर्तिगतस्तेन मूर्तिना मूर्तम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ॥ ५५ ॥ इन्द्रियज्ञानं हि मूर्तीपलम्भकं मूर्तीपलभ्यं च तद्वान् जीवः स्वयममूलोऽपि पञ्चेन्द्रिया त्मकं शरीरं मूर्तमुपागतस्तेन ज्ञप्तिनिष्पत्तौ बलाधाननिमिततयोपलम्भकेन मूर्तेन मूर्त स्पर्शादिप्रधानं वस्तुपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य कदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगच्छति, कदाचितसंभवान्नाव गच्छति । परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थि गुण्डनान्निमोलि नामसंजीव सयं अमृत मुत्तिगद त मुत्ति मुत्त जोग यात ण । धातुसंत- अब गिव्ह ग्रहणे, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-जीव स्वयं अमूर्त मूर्तिगत मूर्ति मूर्त योग्य वा तत् न । मूलघातु- अब ग्रह उपादाने, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण जीवो जीवः अमुक्ती अमूर्त: मुत्तिमदो मूर्तिगतः प्रथमा ए० । माति ] जानता है [ वा न जानाति ] प्रथवा नहीं जानता है । तात्पर्य यह प्राणी इन्द्रियोंके द्वारा कभी मूर्त पदार्थका श्रवग्रह ज्ञान करके मागे कुछ जान भी पाता व नहीं भी जान पाता, ऐसा यह इन्द्रियज जान बहुत कमजोर ज्ञान है । टोकार्य - इन्द्रियज्ञान मूर्तका उपलम्भक है, और मृर्तके द्वारा उपलभ्य है । वह इंद्रियज्ञान वाला जीव स्वयं अमूर्त होनेपर भी मूर्त-पंचेन्द्रियात्मक शरीरको प्राप्त होता हुमा, ज्ञप्ति उत्पन्न करनेमें बलधारणका निमित्त होनेसे उपलम्भक हुए उस मूर्त शरीरके द्वारा मूर्त स्पर्शादिप्रधान वस्तुको जो कि योग्य हो अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा उपलभ्य हो उसे श्रवग्रह करके परोक्षपना होनेसे कदाचित् उससे ऊपर ऊपरकी शुद्धिके सद्भाव के कारण उसे जानता है और कदाचित् श्रवग्रहसे ऊपर ऊपरकी शुद्धिके श्रसद्भाव के कारण नहीं जानता है । देखियेचैतन्यसामान्यके साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध होनेपर भी जो प्रति दृढ़तर अज्ञानरूप प्रन्धकारसमूह द्वारा प्रवृत होनेसे संकुचित हो गया है व स्वयं जाननेके लिये असमर्थ हो गया है ऐसे श्रात्माका उपात्त और प्रतुपास परपदार्थरूप सामग्रीको नेकी व्यग्रतासे प्रत्यंत चंचल-तरलअस्थिरता हुआ, प्रनन्तशक्तिसे च्युत होनेसे अत्यन्त खिन्न वर्तता हुमा, महामोह-महलके जीवित होनेसे परको परिमित करनेका अभिप्राय करनेपर भी पद पदपर ठगाईको प्राप्त होता हुआ परमार्थतः न जानने की संभावनाको प्राप्त है; इस कारण वह हैय है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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