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________________ Site www प्रवचनसार ... सप्तवनाङ्गी टीका प्रत्यक्षत्वात् । प्रत्यक्ष हि ज्ञान मुद्धिनानन्तशुद्धिसन्निधान मनादिसिद्धचतन्यसामान्यसंबन्धमेकमवाक्षनामानमात्मानं प्रतिनियमितरों सामग्रीममृगयमाणमनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव बाह्याकारायण ज्ञानस्य ज्ञेया काराणामनतिकमायथोदितानुभावमनुभवत्तत् केन नाम निवायेत । अतस्तपादेयम् ।। ५.४ ।। हुदर इतरं तं तत् णाणसानं प्रत्यक्ष-प्रथमा एक । वदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक किया। निरूक्ति-~-प्रकर्षण ईक्षते इति प्रेक्षमाणः तस्य । समास इन्द्रियं अतिक्रान्तं अतीन्द्रियं ।। ५४ ।। के कारमा अनन्तताको प्राप्त है, सा तथा दहनके दाह्याकारोंकी तरह ज्ञानके ज्ञेयाकारोंका उल्लंघन न होनेसे यथोक्त प्रभावका अनुभव करता हुआ वह प्रत्यक्ष ज्ञान किसके द्वारा रोका जा सकता है ? अतः अतीन्द्रिय शान उपादेय है। : प्रसंगविवरण --...अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि इन्द्रियज ज्ञान व सुख हेय है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान व मुख उपादेय है । अव इस गाथामें उपादेयभूत अतीन्द्रिय सुख को उसके साधनीभूत अतीन्द्रिय ज्ञानको उपादेय बताया गया है। का तथ्यप्रकाश---- (१) प्रतीन्द्रिय जान अमूर्तको, इन्द्रियागम्य मूर्तको, द्रव्यप्रच्छन्नको, क्षेत्राच्छन्नको, कालप्रच्छन्नको, भावप्रच्छन्नको सभी स्व-पर पदार्थोको जानता है । (२) धर्म, अधम, आकाश, काल व जीव पदार्थ अमूर्त हैं । (३) परमारगु व अति सूक्ष्मस्कन्ध इन्द्रिया. गभ्य मूर्त हैं । (४) काल आदिक पदार्थ द्रव्यप्रच्छन्न हैं। (५) अलोकाकाशके प्रदेश प्रादिक क्षेत्रप्तच्छन्न हैं । (६) भूत भविष्यत् पर्याय कालप्रच्छन्न हैं । (७) स्थूल पर्यायोंमें अन्तलीन Famom सूक्ष्म पर्यायें भावप्रच्छन्न हैं। (८) समस्त पदार्थ स्व व परकी व्यवस्थामें व्यवस्थित हैं। EHATI) प्रभुका अतीन्द्रियज्ञान सफल प्रत्यक्ष है । (१६) सकलप्रत्यक्षमें अनन्त ज्ञेय ज्ञात होते ही सा ही ज्ञानस्वभावके कारण व ज्ञेयस्वभाव के कारण अनिवारित नियम है। सिद्धान्त--(१) निरुपाधि शुद्ध ज्ञान सदैव सर्वज्ञेयाक्रान्त रहता ही है । दृष्टि-.--१- असून्यनय [१७४] । FAMI प्रयोग--ज्ञानस्वभाव के कारण ज्ञान को अपना विलास करने दो, एतदर्थ अपने वर्त. Fun मान उपयोगको प्रखण्ड एक प्रतिभासमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त करना ॥५४॥ SMART अब इन्द्रियसुख का साधनीभूत इन्द्रियज्ञान हेय है, ऐसा उसको प्रकर्षरूपसे निन्दते हैं Sam अति इन्द्रियज ज्ञानके प्रति हेयबुद्धि रखकर उसका अवगुण कहते हैं--स्वयं प्रमूर्तः स्वयं अमूर्त [जीवः] जीव [भूतिगतः] मूर्त शरीरको प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तिना] उस मूर्त शरीरके द्वारा [योग्य भूत] योग्य मूर्त पदार्थको [अवगृह्य] अवग्रह करके [तत्] उसे [जा. .AVAVASSASSASSSSSSSSSSS
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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