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________________ ३७६ सहभानन्दशास्त्रमालायां स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थितमेवातिनिःप्रकम्पः संप्रतिपद्ये । स्वयमेव भवतु चास्यवं दर्शनविशुद्धिमूल या सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाध रतस्वात्साधोरपि सामात्सिद्धभूतस्य स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेवपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कारः ।। जनं ज्ञानं ज्ञेयतत्वप्रणेतृ स्फीतं शब्दब्रह्म सम्यग्विगाह्य ।। संशदास्मद्रव्यमात्रकवस्या नित्यं युक्त': स्थीयतेऽस्माभिरेवम् ।।१०॥ ज्ञेयोकूर्वन्नजसासोमविश्वं ज्ञानीकुर्वन् ज्ञेयमाक्रान्तभेदम् । प्रात्मीकुर्वन ज्ञानमात्मान्यभासि स्फूजत्यात्मा ब्रह्म संपया सद्यः ॥११॥ द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मियो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुर. जाणगं ज्ञायक-द्वितीया एक० । सभावेण स्वभावेन-तृतीया एक० । परिवज्जामि परिवर्जयामि--वर्तमान उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया । मत्ति ममता--द्वि० एक० । उवडिलो उपस्थितः-प्रथमा एकवचन । णिम्मयत्तम्मि निर्ममत्वे-सप्तमी एकवचन । निरुक्ति-नि:शेषेण वानं निर्वाणं वा गतिबन्धनयोः, मार्यते यत्र स द्रव्यानुसारि इत्यादि-- अर्थ----चारित्र द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चारित्रानुसार होता है । इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं; इस कारण या तो द्रव्यका आश्रय लेकर या चारित्रका आश्रय लेकर मोक्षके इच्छुक जन मोक्षमार्गमें प्रारोहण करो। प्रसंगविवरण-~-अनन्तरपूर्व गाधामें "शुद्धात्मतत्वोपलब्धि ही मोक्षमार्ग है। यह निश्चित किया गया था। अब इस गाथामें समताको प्राप्त होने विषयक पूर्व प्रतिज्ञाका निर्वाह कराते हुए शुद्धात्मतत्त्वमें स्थित कराया गया है । तथ्यप्रकाश - (१) अब इस मुझ मोक्षाधिकारीको पर व परभावसे ममत्व छोड़ देनेसे, अविकार ज्ञानस्वरूपको अपना लेनेसे अन्य कुछ भी करने योग्य न रहा । (२) जब मुझे करनेको कोई अन्य कृत्य न रहा तब मैं सहज ही समस्त पौरुषसे अविकार सहज शुद्ध अन्तस्तत्वमें ही रहूंगा । (३) कृतकृत्य सहजानन्दमय होनेका मूल उपाय जायकस्वभाव प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान, ज्ञान व पाचरण है । (४) मैं स्वभावसे ज्ञायकस्वरूप ही हूं। (५) केवल जाननहार स्वभाव वाले मुझ प्रात्माका समस्त पदार्थोके साथ मात्र सहज ज्ञेयज्ञायक रूप ही सम्बन्ध है । (६) निश्चयसे तो पर पदार्थों के साथ ज्ञेयज्ञायकसम्बंध भी नहीं है । (७) पर व परभावसे विविक्त मुझ सहजज्ञानस्वभाव प्रात्माका पर व परभावसे कुछ भी ममत्व नहीं है। (८) मैं अनन्त सिद्ध पुरुषोंकी तरह परम सहज शान्त निज शुद्धात्मामें ठहरू गा (8) जो भी भव्यात्मा सिद्ध भगवंत हुए वे निज सहज परम शान्त ज्ञायकस्वभाव शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होकर ही हुए हैं। (१०) सिद्ध भगवंतोंको व सहजात्मस्वरूपको शुद्धात्मतत्वपरायण होनेरूप भावनमस्कार होयो। 1.BANESENERAL RMmmmmwwwUHAmouminountantramadhannat Awakeepavemanww
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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