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________________ समस प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका १८६ । सर्गः मृगयमारणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावादभवनिरेव भवेत्, प्रमदुत्पाद एव वा । तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादे वा व्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा केवलं संहारमारभमाणस्य मृत्पिण्डस्य संहारकारणाभावादसहरगिरेव भवेत, सदुच्छेद एव वा। तत्र मृतिगण्डस्यासंहरणौ सर्वेषामेव भावानामसंहरगिरेव भवेत् । सदुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा देवला स्थितिमुपगच्छत्या मृत्तिकाया व्यतिकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेव भवेत्, क्षणिकनित्यत्वमेव वा । तत्र मृत्तिकाया प्रस्थानी सर्वेषामेव भावान मस्थानिरेत्र भवेत् । क्षणिकनित्यत्वे वा चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरव्यतिरेकाणां सर्गरंग पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेगाव यस्यवस्थादेनाविनाभूतमुद्योतमाननिविधनलक्षण्यलाञ्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् 11१००। "प्रयमा एकवचन । धौव्वेण ध्रौव्येन अत्थेण अर्थेन-तृतीया एका० । निरुक्ति... भवनं भवः, भंजनं भंगः (भंजो आमर्दने) । समास-(भंगेन विहीन: भंगविहीनः संभवेन विहीनः संभवविहीनः वि०॥ प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्व होनेपर भी सत् द्रव्य होता है । अब इस गाथामें उत्पादव्ययध्रौव्योंका परस्पर अविनाभावको दृढ़ किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) नवीन पर्यायका उत्पाद पूर्वपर्याय के विनाश बिना नहीं हो सकता है। (२) पूर्व पर्यायका विनाश नवीन पर्यायके उत्पाद बिना नहीं हो सकता। (३) उत्पाद और विनाश ध्रौव्य हुए विना संभव नहीं। (४) नौव्य रहना उत्पाद व विनाशके बिना संभव नहीं । (५) जो ही नवीन पर्यायका उत्पाद है वही पूर्वपर्यायका विनाश है क्योंकि भाव भावान्तरके प्रभावस्वरूप होता है । (६) जो ही पूर्व पर्याय का विनाश है वही नवीन पर्याय का उत्पाद है, क्योंकि अभाव अन्य भावके सद्भावरूप होता है । (७) जो ही पूर्वोत्तर पर्याय का विनाश उत्पाद है वही ध्रौव्य है, क्योंकि इन भिन्नोंमें अन्वयका देखना होता है । (क) जो ही ध्रौव्य है वही उत्पाद विनाश है, क्योंकि ये भेद अन्वयका अतिक्रम नहीं करते । (8) द्रव्य उत्पाद व्ययका अविनाभूत होता है। सिद्धान्त-(१) द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । दृष्टि-१- उत्पादध्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२५) । प्रयोग-संसारपर्यायका व्यय, सिद्धपर्यायका उत्पाद व अपने स्वभावका ध्रौव्य वाली EM स्थितिकी प्रतीक्षा करना ।।१०।। अब उत्पादादिकोंके द्रव्यसे अर्थान्तरपनेको नष्ट करते हैं- [उत्पादस्थितिभङ्गाः] BEEEEEEEEEEEEEEEEEEजान
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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