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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां तद्भाव: स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात् । तत्त्वेकविधमपि द्रव्यकोपाधिस्तनिधिसद्धावासद्भावाभ्यामनेकविधम् । तस्य कर्मशो यन्निपाद्य सुखदुःखें तत्कर्मफलम् । तत्र द्रव्यकोषाधिसान्निध्यासद्धानात्कर्म तस्य फलमनाकुलत्वलक्षण प्रकृति भूतं सौख्यं यत्तु द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्भावात्कम तस्य फलं सौख्यलक्षण भावाद्विकृतिभूतं दुःखम् । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिएचयः ॥ १२४ ।। रण--गाणं लानं अत्रियाणो अष्टविकल्पः कम्म कर्म तं तत् अयोगविधं अनेकविध फला सोबत सौख्यं सुक्खरखं-प्रथमा एबावचन । जीवेण जीवेन-तृतीया एकवचन । समारद्धं समारब्ध-प्रथमा एकवचन दम क्रिया । भणिदं भणित-प्रथमा एक कृदन्त किया । निरुक्ति-ज्ञप्ति: ज्ञान, विकल्प विकल्पः क्रियते इति कर्म । समास-अर्थस्य विकल्पः अर्थबिकल्पः।। १२४ ।। जानने को विकल्प कहते हैं । (४) शुद्ध स्थिति में प्रात्माके द्वारा किया जाने वाला कानन है वह कर्म है, क्योंकि वहो प्रात्माके द्वारा प्राप्य है। (५) शुद्ध स्थिति में शुद्ध जाननरूप कर्मका जो ग्रनाकुलतास्वरूप सहजानन्दानुभनन है वह कर्मफल है । (६) कोपाधिसहित स्थिति में जीवका ज्ञानविकल्प है वह अज्ञानपरिणत ज्ञान है । ( 3 ) सोपाधि स्थितिमें प्रात्माके द्वारा किया जाने वाला विकृत कल्पनामय ज्ञानविकल्प है यह कम है। (4) सोपाधि स्थिति में उस उपरक्त ज्ञानविकल्पसे निष्पाद्य विकाररूप सुख दुःखानुभवन है वह कर्मफल है। सिद्धान्त-(१) शुद्ध निश्चयसे कर्ता, कर्म व कर्मफल शुद्ध प्रात्मा में घटित होते हैं । (२) अशुद्ध निश्चयसे कर्ता, कर्म व कर्मफल सोपाधि (अशुद्ध) आत्मामें घटित होते हैं। दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार (७३)। २- कारककारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भुत व्यवहार (७३)। प्रयोगकर्ता, कर्म व कर्मफल निश्चयतः एक आत्मवस्तुमें ही हैं ऐसा जानकर अन्य पदार्थका विकल्प छोड़कर अपने में अपनी सहज वृत्ति और सहज आनंदानुभव होने देना ॥१४॥ __ अब ज्ञान, कर्म और कर्मफलको प्रात्मरूपसे निश्चित करते हैं-- [प्रात्मा परिणामा. स्मा] आत्मा परिणामस्वभावी है । [परिणामः] परिणाम [ज्ञानकर्मफल मादी] ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होने वाला है; [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानं, कर्म फलं च] ज्ञान, कर्म और कर्मफल [आत्मा ज्ञातव्यः] अात्मस्वरूप जानना चाहिये। तात्पर्य—अात्मा परिणामस्वभावी है । परिणाम ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होने वाला है । प्रात्माको ज्ञान, कर्म व कर्मफलरूप जानना चाहिए। टोकार्थ----नियमतः आत्मा बास्तवमें परिणामस्वरूप ही हैं, क्योंकि 'परिणाम स्वयं श्रात्मा है' ऐसा ११२वीं गाथामें श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने स्वयं कहा है; और परिणाम चेतना. स्वरूप होनेसे ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होनेके स्वभाव वाला है, क्योंकि चेतना तन्मय ..... . ..... :.:......... -- --
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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