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________________ 358 SIC ifraterdamsutra प्रवचनसार सप्तदशाङ्गी टीका या सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुएन जति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरोयवत् । क्या खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालिसममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमपत्र जति, स्वरूपत एव तथावधित्वमसम्बते । तथा द्रव्यमपि समपात्तप्राक्तनावस्थं समुचित बहिरङ्गसाधन सन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानस्वरूप. कर्तृकरणसामर्थ्य स्वभावेनांतरङ्गसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तराबस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमुपत्र जति, स्वरूपत एवं तथाविधत्वमवलम्बते । यथा व तदेवोत्तरीयममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते । न च तेन द्रव्य इति । मूलधातु- अ व्यक्तायां वाचि । उभयपदविवरण-अपरिचत्तराहावेण अपरित्यक्तत्वमा "देन-तृतीया एकः । उप्यादब्बयधुवत्तसंबद्धं उत्पादच्यय अश्त्यसंवद्धं गुणवं गुणवत् सपज्जायं सपर्यायं जयत् तं तत् व्वं द्रव-प्रथमा एकः । निरुक्ति-उत्पद्यते इति उत्पाद: । समास......अपरित्यक्तः स्वभाव ऐसा प्रभु [ब्रुवन्ति] कहते हैं । तात्पर्य एकस्वभावरूप उत्पादव्य यध्रौव्ययुक्त गुरणपर्यायवान सत् द्रव्य कहलाता है । टोकार्थ-दास्तवमें इस विश्वमें नहीं है स्वभावभेद जिसमें, ऐसा जो उत्पादव्ययधौ"व्यत्रयसे और गुणपर्यायद्वयसे लक्षित होता है वह द्रव्य है। उनमें अर्थात् स्वभाव, उत्पाद, व्यय प्रौव्य, गुण और पर्यायमें से द्रव्यका स्वभाव है अस्तित्वसामान्य रूप अन्वय । अस्तित्व दो प्रकारका कहेंगे ----(१) स्वरूपास्तित्व, (२) सादृश्यास्तित्व । उनमें उत्पाद तो प्रादुर्भाव है; व्यय, प्रश्रुति है; धोव्य, अवस्थिति है; तथा गुण, विस्तारविशेष हैं । वे सामान्यविशेषास्मक होने से दो प्रकारके हैं। इनमें अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुहलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं । अवगाह हेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिकार णत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्व, नेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं । पर्याय अायतविशेष हैं । वे पूर्व ही (६३वी गाथाकी टीकामें) कथित चार प्रकारके हैं । द्रव्यका उन उत्पादादिके साथ अथवा गुरगपर्यायोंके साथ लक्ष्य लक्षण भेद होनेपर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूपसे ही द्रव्य उत्पादादि अथवा गुणपर्याय वाला है; वस्त्र के समान । जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोया हुमा निर्मल अवस्था रूपसे उत्पन्न होता हमा उस उत्पादसे लक्षित होता है, किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्व. रूपसे ही वैसा है अर्थात् स्वयं उत्पादरूपसे ही परिणत है । उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था Rail -------- - -- --PATIHASTRI INS
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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