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________________ emman ४१० सहजानन्दशास्त्रमालायां शुद्धोपयोगास द्वाव: परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाञ्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपले पत्वप्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ॥ २१८६ ।। मत यतं यदि नित्यं कमल इत्र जल विश्लेष। मूलधातु- चर गत्यर्थः, मनु अथबोधने । उभयपदविदरण - अयदाचारो अयताचारः समणो भ्रमण: बधकरो बधकरः णिरुवलेको निरुपलेपः प्रथमा एकवचन । छस्सु सु - सप्तमी बहुवचन । त्रि अपि त्ति इति जदि यदि व इव णिच्च नित्यं अध्यय । कायेसु कार्येषुस० ए० । मदो मतः- प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । चरदि चरति वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदं यतंक्रियाविशेषण यतं यथा स्यात्तथा कमलं - प्र० एक० जुलै-सप्तमा एक निरुक्ति- काजल अलति भूषयति इति कमले कम् + अ + अच् वधं करोति इति वधकरः || २१= || की तरह निर्लेप है । टीकार्थ -- चूंकि अशुद्धोपयोग के अविनाभावी अप्रयत आचारपनेसे प्रसिद्ध हो रहा है शुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके वह वहकायके प्राणोंके व्यपरोपके आश्रयसे होने वाले बंधकी प्रसिद्धि होनेसे हिंसक ही है और चूँकि अशुद्धोपयोग के बिना होने वाले प्रयत प्राचारपने से प्रसिद्ध हो रहा है अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके वह परके आश्रयसे होने वाले लेशमात्र भी ver भाव होनेसे जलमें भूलते हुये कमलको भांति निर्लेपत्यकी प्रसिद्धि होनेसे हिंसक हो है, इस कारण उन उन सर्वप्रकारसे अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारोंसे उसका श्रायतनमात्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छेद श्रत्यन्त निषिद्ध हो । प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें अन्तरङ्ग छेद व बहिरङ्ग छेदके भेदसे छेद दो प्रकारके कहे गये थे | अब इस गाथामें बताया गया है कि सर्व प्रकारसे ग्रन्तरङ्ग छेद स्थाज्य है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) जहाँ प्रयत्नाचार है वहां शुद्धोपयोग अवश्य है । (२) प्रयत्नाचारमें किसी जीवका प्राव्यपरोप हुआ श्रोर वहाँ इस कारण बन्ध भी हुआ तो वहाँ वह शुद्धोपयोगी हिंसक ही है । (३) श्रशुद्धोपयोग के बिना हुए ourरोप नहीं होता व तत्प्रययक बन्ध भी नहीं होता अतः ही है । ( ४ ) जैसे जलमें भूलता हुआ कमल निर्लेप है, प्रवर्तने वाला श्रमण भी निर्लेप है । (५) जिन जिन समिति आदि उपायोंसे अन्तरंगछेदके पायतनभूत परत्राणविघातरूप बहिरंग छेद रंच भी न हो उन उन उपायोंसे प्रशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका परिहार कर देना चाहिये । (६) प्रविकार ग्रात्मतत्व के अनुभव की जहाँ भाग वना नहीं वहाँ सब प्रयत्नाचार है । (७) शुद्धात्मानुभवरूप शुद्धोपयोग में परिणम रहा यत्नाचार में किसी जीवका प्राणशुद्धोपयोगरहित ग्रात्मा श्रहिंसक इसी प्रकार समिति में यत्नाचारसे
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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