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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथ सर्वयान्तरंगच्छेदः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति--
अयदाचारो समणो चस्सु चि कायेसु बधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुबलेवो ॥२१॥
छह कायोंमें प्रयताचारी मुनि नित्य है कहा बन्धक ।
यत्मसहित चर्या हो, तो जलमें पद्मवत् निर्मल ॥२१॥ अयताचार: श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः । चरयि यतं तदि नित्यं अमल मिव जले निरुप
लेपः ॥२१८ ।। यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्भावः षटकायप्राराव्यपरोपप्रत्ययबन्ध प्रसिद्धच्या हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयद
नामसंज्ञ--अयदाचार समण छबि काय वधकर ति मद जदं जदि णिचं कमल व जल णिरुवलेव । धातुसंज्ञ- चर गली, मग्न अवबोधने । प्रातिपदिक-अयताचार श्रमण षट् अपि काय बधकर इति रण अशुद्धोपयोग होनेपर होता है अत: अशुद्धोपयोग सुनिश्चित हिंसा है। (६) दूसरे जीबके प्राणोंका घात हो या न हो जहाँ प्रशुद्धोपयोग है जिसके बलपर हो असावधानीका आचरण होता है, वहाँ हिंसा निश्चित ही है । (७) जहाँ प्रशुद्धोपयोग नहीं है और साबधानीका श्राचरण हैं वहीं दूसरे जीवका कदाचित् प्राणव्यपरोप भी हो गया तो भी अहिंसा है। (८) महिंसाभावको पहचान यह है कि उस भाव में बन्ध नहीं होता । (६) अशुद्धोपयोग रूप अन्तरंग छेद स्वयं हिंसा है अनः अन्तरङ्ग छेद बलिष्ठ है । (१०) यद्यपि अन्तरंग छेद हो बलिष्ठ है तो भी अन्तरङ्ग छेदका प्रायतन होनेसे बहिरङ्ग छेद भी अनर्थकारी है।
सिद्धान्त-(१) अन्तरङ्ग छेद बलिष्ट होनेके कारण बहिरंग छेदसे विलक्षण है। दृष्टि---५- वैलक्षण्यनय (२०३)
प्रयोग-परमार्थ स्वास्थ्य में ही प्रात्महित जानकर अन्तरङ्ग छेद व बहिरङ्ग छेदका परिहार करना ॥२१७॥
अब सर्व प्रकारसे अन्तरंग छेद त्याज्य है, ऐसा उपदेश करते हैं- [प्रयताचारः अमन अप्रयत याचार वाला श्रमण [षट्सु अपि कायेषु] छहों काय सम्बंधी [बधकरः] वधका करने वाला है [इति मतः] ऐसा माना गया है। [यदि] यदि मुनि [नित्य ] सदा
यतं चरति] प्रयतरूपसे प्राचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमलको मांति [निह. पलेपः] निर्लेप कहा गया है।
तात्पर्य-अयत्नाचारी पुरुष छहों फायका हिंसक है, यत्नाचारी पुरुष जलमें कमल
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