SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ KA5064 प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गो टीका प्रय प्रयाणां प्रदेशवत्त्वाप्रदेशवत्वविशेष प्रज्ञापयति--- जीवा पोग्गलकाया धम्माऽधम्मा पुणो य आगासं । सपदेसेहिं असंखादा गास्थि पदेस त्ति कालस्स ॥ १३५ ॥ जीव व पुद्गल धर्म व, अधर्म अाकाश है बहुप्रदेशो। किस ही कालाणा के एकाधिक भो प्रदेश नहीं ॥ १३५ ।। जीयाः पुगलकाया अधिौं पुनश्चाकाशम् । स्वप्रदेगरसंध्याता न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य ।।१३५।। प्रदेशवन्ति हि जीवपुद्गलधर्माधर्भाकाशानि अनेक प्रदेश वत्त्वात् । अप्रदेशः कालारपुः प्रदेशमात्रत्वात् । अस्ति च संवर्तविस्तारपोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य दव्य प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विपदेशादिसंख्येयासंख्ययानन्तप्रदेशपर्यायेशानवधारितप्रदेशसहादुगलस्य, सकललोकन्यायसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वात् धर्मस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येय. नामसंश-जीव पोग्गलकाय धमाधम्म पुणो र आगास सरदेस असंखाद ण पदेस सि काल । धातुसंज--असं सत्तायां । प्रातिपदिक ....जीव पुद्गलकाय धर्माधर्म पुनः च आकाश स्वप्रदेश असंख्या न प्रदेश इति काल । मूलधातु-- अस् भुवि । उभयपदविवरण ---जीवा जीवाः पोग्गलकाया पुद्गल काया:-- प्रथमा बहुवचन । धम्माधम्मा-प्र० बहु० । धर्माधौ-प्र० वि० १ पुणो पुनः य च ण म ति इति-अव्यय । दृष्टि---स्व द्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)। प्रयोग-प्रसाधारण लक्षणोंसे स्व द्रव्य परद्रव्यका भेद जान कर पर द्रव्योंसे उपयोग हटा कर स्वसहजतत्त्व में ही उपयुक्त रहना ।। १३३-१३४।। EMANY अब द्रव्योंके प्रदेशवत्व और अप्रदेशवस्वरूप विशेषको बतलाते हैं -- [जीवाः जीव पतालकाया:] पुद्गलकाय धर्माधर्मा] धर्म, अधर्म पुनः च] और [आकाशं प्रकाश Eins स्यप्रदेशः] स्वप्रदेशों की अपेक्षासे [असंख्याताः] असंख्यात अर्थात् अनेक हैं; [कालस्य] काल के [प्रदेशाः इति] प्रदेश [न सन्ति] नहीं हैं। तात्पर्य-जोध, पुद्गल, धर्म, अधर्म व अाकाश, ये पांच द्रव्य अस्तिकाय है, कालदिव्य प्रस्तिकाय नहीं। टीकार्थ-- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और प्रकाश अनेक प्रदेश वाले होनेसे प्रदेशवान हैं। कालाणु एकप्रदेशी होनेसे ग्रप्रदेशी है । संकोच-विस्तारके होनेपर भी जीव लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशोंको नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रदेशवान है । पुद्गल, यद्यपि दिव्य अपेक्षासे एकप्रदेशी होनेसे अप्रदेशी है, तथापि दो प्रदेशोंसे लेकर संख्यात, असंख्यात और अतत प्रदेशोंवालो पर्यायों की अपेक्षासे अनिश्चित प्रदेश वाला होनेसे प्रदेशवान है; सकल SAREES
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy