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४३ ज्ञेयार्थपरिणमनस्वरूप क्रिया और उसका फल कहांसे उत्पन्न होता है इसका विवेचन ४४ केवली भगवानके क्रियासे भी क्रियाफलकी अनुत्पत्ति ४५ तीर्थंकरों के
पुण्य विपाक की अकिंचित्करता
४६ केवली भगवान की भांति समस्त जीवोंके स्वभावविघातका अभाव होनेका निषेध ४७ अतीन्द्रियज्ञानका सर्वज्ञरूपसे अभिनन्दन ४८ सबको नहीं जानेवाला एकको भी नहीं
जानता
४६ एकको नहीं जाननेवाला सबको नहीं जानता ५० क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञानके सर्वगतपनेकी असिद्धि
५१ युगपत् प्रवृत्तिके द्वारा ही ज्ञानके सर्वगतत्वकी सिद्धि
५२ ज्ञानीके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी क्रियाफलरूप बन्धका निषेध
५३ ज्ञानसे अभिन्न सुखका स्वरूप वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख के हेयोपादेयताका विचार
५४ अतीन्द्रियसुख साधनीभूत अतीन्द्रियज्ञानकी उपादेयता
५५ इन्द्रियसुखका साघनीभूत इन्द्रियज्ञानकी
यता
५७ इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा निश्चय ५८ परोक्ष और प्रत्यक्षके लक्षण
५६ प्रत्यक्षज्ञानकी पारमार्थिक सुखरूपता परिनामके द्वारा खेद संभव होने से केवलज्ञानके, ऐकांतिक सुखनिषेधका खंडन
६१ केवलज्ञानकी सुखस्वरूपताका निरूपण ६२ केवलज्ञानियों के ही पारमार्थिक सुख होता है, ऐसी श्रद्धा कराना
६३ परोक्षज्ञानियों के अपारमार्थिक इन्द्रियसुख का
विचार ६४ इन्द्रियों के रहन तक स्वभावसे ही दुःख
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७६
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होने की न्याययुक्तताका विनिश्चय
६५ मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धि के लिये, शरीरकी सुखसाधनताका खंडन
६७ आत्मा स्वयं ही सुखपरिणामकी शक्तिवाला है, अतः विषयोंकी अकिंचित्करता का द्योतन
६८ आत्माके सुखस्वभावत्वका दृष्टांत द्वारा दृढ़ढ़ी
करण
६६ इन्द्रियसुखस्वरूप सम्बन्धी विचारको लेकर, उसके साधन के स्वरूपका कथन ७० इन्द्रियसुखका शुभोपयोगसाध्यरूपमें कथन ७१ इन्द्रियसुख की दुःखरूपमें सिद्धि
७२ इन्द्रियसुखके साधनभूत पुण्यके उत्पादक शुभोपयोगकी दुःख के साधनभूत पापके उत्पादक अशुभोपयोगसे अविशेषता का
कथन
७४ पुण्यकी दुःखबीजकारणता ७६ पुण्यजन्य इन्द्रियसुखकी दुःखरूपता
७७ पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय ७८ शुभ और अशुभ उपयोगकी अविशेषता के निर्णायक व अशेष दुःखका क्षय करने के दृढ़ निश्चयीका समस्त रागद्वेषको दूर करते हुए शुद्धोपयोग में निवास ७६ मोहादिके उन्मूलन के प्रति पूर्ण कटिबद्धता ८० मोहकी सेनाको जीतनेका उपाय
८१ चिंतामणि रत्न पाकर भी प्रमाद मेरा लुटेरा है, यह विचार कर जागृत रहना ८२ पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित यही एक, भगवन्तोंके द्वारा स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ निःश्रेयसका पारमार्थिकपन्थ है ऐसा निश्चय
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८३ शुद्धात्मा के शत्रु मोहका स्वभाव व उसके
प्रकार
८४ तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण कहकर उसका क्षय करनेका आसूत्रण १४८
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