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प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गी टीका
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एनं मिल द्रव्यस्वभावः । यस्तु समस्तं ज्ञेयं न जानाति स समस्तं दाह्यमदहन समस्तदाहाल समस्तदाहाकारपर्यायपरिणतसकलकदहनाकारमात्मानं दहन इव समस्तज्ञेयहेतुबमामायाकात्पर्यायपरिणतसकलकज्ञानाकारमात्मानं चेतनत्वात् स्वानुभव प्रत्यक्षत्वेऽपि न परिणाम । एवमतदायाति यः सबै न जानाति स प्रात्मानं न जानाति ।। ४८ ।। का कुरन्त । संपज्जयं सपर्ययं दब्वं द्रव्यं एक-दिल एक । निक्ति-शा योग्य सायं. जिन स्थिताः त्रिभुवनस्थाः तान् । समास-पियेण लहिन सपययं । ४८ । बलाया गया है कि जो त्रिलोकत्रिकालवर्ती सर्व पदार्जको युगपत् नहीं जानता है वह का दिल्यको नहीं जान सकता है। 2 तथ्यप्रकाशा---(१) द्रव्य छह जातिके होते हैं— अाकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधदिव्य, कालव्य, जीवद्रव्य व पुद्गलद्रव्य । (२) अाकाश द्रव्य एक ही है व असीम च्यापन है. इस सब इत्यास व्याप्त व अव्यास क्षेत्रको दृष्टिसे लोकाकाश व लोकालाश ऐसे दो विभाग माने जाते है । (३) धर्मद्रब्ध एक ही है व लोकाकाशप्रमाण है, यह जीव पुद्गलोंकी गति निमितमत है । (४) अधर्मद्रव्य एक है व लोकाकाश प्रमाण है, यह जीव पुद्गलोकी विनिता निमित्तभूत है । (४) कालद्रव्य असंख्यात हैं और वे एक-एक कालगन्य लोकाकाशक -एक प्रदेशपर ही प्रबस्थित हैं, ये सर्व द्रव्योंके परिणमन के निमित्तभूत हैं। (६) जीवद्रव्य - मत है और वे सब लोकाकाशमें ही हैं । (७) पुद्गल द्रव्य जीव द्रव्योंसे भी अनंतानंत है। Maौर के सब लोकाकाशमें ही हैं । (८) सभी द्रव्योंमें अनन्त पर्याय प्रतीत हो चु, अनन्त पर्याय भविष्य में होंगी और वर्तमान पर्याय एक एक होती जाती है । (६) उक्त समय पायोंका समह सब ज्ञेय है । (१०) सर्व ज्ञेयों में केवल जीवद्रव्य ही ज्ञाता हैं । (१५) कुछ बुर
गोको जानने का स्वभाव ज्ञानका नहीं, ज्ञानका स्वभाव कालिक पर्यायोसहित समस्त क्षेत्रों के जाननरूप प्राकारसे परिणामनेका है । (१२) जो ज्ञाता समस्त ज्ञेयोंके जाननरूप प्रामारसे नहीं "परिणाम रहा वह अपने ही पूर्ण विलासरूप नहीं परिणम रहा । (१३) जो समस्त जोको नहीं जानता वह एक अपनेको भी पूर्ण रीत्या नहीं जानता। (१४) जो ज्ञातालीम बर्तमान पर्याय प्रतिबिम्बित स्व प्रात्मद्रव्यको नहीं जानता है वह प्रतीतानागतवतमालपर्याय सहित समस्त द्रव्यों को नहीं जानता वह किसी भी एक द्रव्यको पूर्ण रीत्या नहीं जानता ।
सिवान्त----(१) प्रात्मा स्वभावतः सर्वज याकाराकान्त निजको निश्चयतः जालना
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हटि-१- सर्वगवनय (१७१) ।
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