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________________ .. ........ प्रवचनसाथ---सप्तदशाङ्गी टीका नित्यमेवाधिवसनीयः स्थास्य शीलापवरककोणनिहितशीततोयवत्समगुणसंगाद्गुणरक्षा शीततरतुहिनशर्करासंपृक्तशीततोयवत् गुणाधिकसंगात् गुणवृद्धिः ॥ इत्यध्यास्य शुभोपयोगजनितों को. चित्प्रवृत्ति यतिः सम्यक् संयमसौष्ठवेन परमा क्रान्निवृत्ति क्रमात् । हेलाक्रान्तसमस्तवस्तुधि. सरप्रस्ताररम्योदयां ज्ञानानन्दमयों दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम् ।।१७।। इति शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । अथ पञ्चरत्नम् । तन्त्रस्यास्य शिखण्डमण्डनमिव प्रद्योतयत्सर्वतोद्वैतीयोकमथार्हतो भगवतः संक्षेपत: शासनम् । व्याकुर्वञ्जगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थित्ति जीयात्संप्रति पञ्च. रत्नमनघं सूत्ररिमः पञ्चभिः ॥१८॥२७०।। गोहि म णैः-तृतीया बहु । अधिवसदु अधिवसतु-आज्ञार्थे अन्य० एक० क्रिया । तम्हि तस्मिन्-सप्तमी एक० । णिच्चं नित्यं जदि यदि--अव्यय । इच्छदि इच्छति-वर्त अन्य० एक० क्रिया। निरूक्ति-समयत्ते समयति था इति सभ: (समा-- अच्) सम अयिकले चुरादि । समास-('दुःसस्य परिमोक्षः दुःखपरिमोक्षम् ) ॥२७॥ किकसंगतिसे संयत भी असंयत हो जाता है । २- दुःखसे छुटकारा पाने के अभिलाषी श्रमरण को अपनेसे अधिक गुण वाले श्रमण की संगति करना चाहिये अथवा समान गुण वाले श्रमण की संगति करना चाहिये । ३- छापनेसे गुणाधिक श्रमणको संगति गुणवृद्धि होती है जैसे कि बर्फ शर्करासे संपृक्त जलमें शीतलताकी वृद्धि होती है । ४- अपने समान गुण वाले श्रमणकी संगतिसे गुणरक्षा होतो है जैसे कि शीतल घरके कोने में रखा हुअा जल शीतल रहता है। ५- श्रमण भोपयोगजनित प्रवृत्तिका सेवन करके संयमकी श्रेष्ठताकी ओर ही बढ़ता है और परमनिवृत्तिको प्राप्त कर शाश्वती ज्ञानानन्दमयो अवस्थाका अनुभव करता है । सिद्धान्त---- (१) श्रम शुद्धभावनाके बलसे शुद्धताकी ओर बढ़ता है और कर्मभारसे मुक्त हो जाता है। दृष्टि-१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-... दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये सहज अन्तस्तत्त्वमें लोन होनेका मुख्य ध्येय रखते हुए गुणाधिक श्रमणको अथवा समान गुण वाले श्रमणकी संगतिमें रहना ॥२७॥ इस प्रकार शुभोपयोग प्रजापन पूर्ण हुना। अब पांच रत्नों जैसी पांच गाथायें कहते हैं, उसकी उत्थानिका तन्यस्यास्य इत्यादि । अर्थ---अब इस शास्त्रके चूड़ामणि समान व संक्षेपसे अर्हन्तभगवान के समय अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशित कर रहे व इन पांच सूत्रोंके द्वारा विलक्षण पंथ वाली संसार-मोक्षकी स्थितिको जगतके समक्ष प्रगट कर रहे निर्मल पंच रत्न जयवन्त बों।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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