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________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका २६१ प्रय पुनरध्यात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वसिद्धये गतिविशिष्टव्यवहारजीवत्वहेतुपर्यायस्वरूपमुदवसायति - अस्थित्तहिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्यंतरम्मि संभूदो। अत्यो पजाबो सो संठाणादिप्प भेदेहिं ॥ १५२ ॥ स्वास्तित्वसे सुनिश्चित, द्रव्यका अन्य द्रव्यमें बँधना । है संस्थानादि सहित पर्याय अनेकद्रयात्मक ॥१५२।। स्तित्व निश्चितस्य ह्यर्थस्यार्थान्तरे. संभूतः । अर्थ: पर्यायः स संस्थानादिप्रभेदैः ।। १५२ ।। स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभुतस्वरूपस्तित्व निश्चित वारयस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः । स खल पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इव जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव । नामसज अस्थित्तणिजिलद हि अस्थ अस्थलर संभूद अस्थ पज्जाअत संहाणादिप्पभेद । धातुसंज्ञ---- स सत्तायां भव सत्तायां । प्रातिपदिक-अस्तित्वनिश्चित हि अर्थ अर्थान्तर संभूत अर्थ पर्याय तत् Simाना दिप्रभेद । मूलधातु- अस् अधि, भू सत्तायां । उभयपद विवरण-अस्थित्तणिच्छिदस्स अस्तित्वनि आस्थस्स अर्थस्य-षष्ठी एकवचन | अत्यंतरास्म अर्थान्तरेसप्तमी एकवचन । संभूलो संभूतः अत्था मदः] संस्थानादि भेदोंसे बनी है । तात्पर्य---नर नारकादिक असमानजातोय विभावद्रव्य व्यञ्जन पर्याय है । meटीका...... स्वलक्षणभूत स्वरूप अस्तित्वसे निश्चित एक द्रव्यका, स्वलक्षणभूत स्वरूप. मस्तित्व से ही निश्चित अन्य अर्थमें विशिष्ट रूपसे उत्पन्न होता हुप्रा अर्थ (भाव) अनेकद्रव्यामक पर्याय है । वह वास्तवमें, पुद्गलकी अन्य पुद्गलमें उत्पन्न होने की तरह जीवकी, पुद्गल में संस्थानादिसे विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई परिचयमें पाती ही है । और ऐसी पर्याय योग्य घटित है क्योंकि केवल जीव की व्यतिरेकमात्र अस्खलिल एक द्रव्य पर्याय ही अनेक द्रव्योंकी संयोगात्मकतासे बुद्धिमें प्रतिभासित होती है। प्रसंगविवरण --अनन्तर पूर्व गाथामें पौद्गलिक प्राणसंततिको निवृत्तिका उपाय बताया गया था। अब इस गाथा में प्रात्माको अत्यन्त विविक्त सिद्ध करने के लिये व्यवहारजीवस्वकी कारणभूत देव मनुष्यादि गतियुक्त पर्यायोंका स्वरूप कहा गया है। तथ्यप्रकाश----१- प्रत्येक द्रव्य का स्वरूपास्तित्व अपने अपने द्रव्यके ही प्रदेशों में स्व में है अन्य सब द्रव्योंसे भिन्न है । २.- अपने अपने स्वरूपसे सत् होनेपर भी निमित्तनमिFतियोगवश पुद्गल पुद्गलोंका वान्धरूप विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय हो जाता है। ३- अपने अपने स्वरूपसे सत् होने पर भी निमित्तनैमित्तिक योगवश जीव पुद्गलोंका देवादिक भावरूप ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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