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________________ सहजानन्दशास्त्रमालाय अर्थवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय यवहारजीवत्व हेतुमालोचयति - सपदेसेहिं समग्गो लोगो अहिं गिट्टिदो मित्रो । जो तं जागदि जीवो पादुकाभिसंबद्धो ॥१४५॥ प्रदेश प्रर्थोंसे, समग्र यह लोक नित्य निति है । २५० उसका ज्ञाता जीव हि वह जगमें प्रारणसंयोगी ।। १४५ ॥ प्रदेश: समग्र ग्लोकोऽर्थे निष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ॥ १४५ ॥ एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्त्र समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावैः पदार्थः समग्र एव यः समाप्ति नीतो लोकस्तं खलु तदन्तः पातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीव एव जानीते नश्वितरः । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञानज्ञेयविभागः । अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूप भूत नामसंज्ञ-सपदेस समग्ग लोग अट्ठ णिट्टिद णिच्च ज त जीव पाणचटुक्का हिसंबद्ध | धातुसंज्ञजाण अवबोधने, अण प्राणने । प्रातिपदिक-सप्रदेश समग्र लोक अर्थ निष्ठित नित्य यत् तत् जीव प्राणकालद्रव्यका एक परिणमन समय है, कालद्रव्यका एकदेश में परिणमन समय नहीं है, अतः काल एकप्रदेशी है । (१३) कालद्रव्य में तिर्यक्प्रचय नहीं होता, क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं । (१४) यदि कोई कालद्रव्यको लोकाकाश बराबर प्रसंख्यातप्रदेशी माने तो वहीं कालrous एक प्रदेश से दूसरे प्रदेशपर दूसरेसे तीसरेपर यों परमाणुकी गति से समय संतति मानी जायगी सो यह तिर्यक्प्रचय भी ऊर्ध्वप्रचय बन गया तिर्यक्प्रचय न रहा । ( १५ ) जहाँ तिर्यक्प्रचय नहीं वहाँ बहुत प्रदेश नहीं होते, सो कालद्रव्य एकप्रदेशी ही है । सिद्धान्त - ( १ ) उत्पादव्ययत्रीव्यात्मक होनेसे कालद्रव्य सत् है । परिणमन होता रहनेसे कालद्रव्य एकप्रदेशी हैं । ( २ ) समयमात्र दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (५४) । २ - उपादानदृष्टि (४६) । प्रयोग... समयपरिणमनसे उसके आधारका परिचय पाने की तरह अपने आत्मपरिण मनसे उसके श्राधारका याने निजपरमात्मद्रव्यका परिचय पाकर सर्व विकल्पोंको छोड़कर चैतन्यस्वरूप निज परमात्मपदार्थ में ही मग्न होनेका पौरुष होने देना ॥ १४४॥ श्रम इस प्रकार ज्ञेयतत्वको कहकर, ज्ञान और ज्ञेयके विभाग द्वारा आत्माको निश्चित करते हुये, प्रात्मा की प्रत्यन्त विभक्तता करनेके लिये व्यहारजीवत्वके हेतुका विचार करते हैं - [ सप्रदेश: श्रर्थे:] सप्रदेश पदार्थोंक द्वारा [निष्ठितः] भरा हुआ [ समग्रः लोकः ] सम्पूर्ण
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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