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________________ : चारित्र सहजानन्दशास्त्रमालायां ༣ धाप ब सादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । श्रहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्व शक्त्य निगूहनबुझानीयवाह श्री शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यासुविधि प्रयास मात्मानमुपलभे । एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासोदति च ॥ २०२॥ 15 3. साध ३८४ चारित्र च तपश्च वीर्य व ज्ञानदर्शनचारित्रनपोवीर्याणि तेषां आचारः ज्ञा० तं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् ॥ २०२॥ तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध आत्मतत्त्वको प्राप्त कर लूं | ( 8 ) ग्रहो द्वादशविध बा ह्याभ्यन्तर तप प्राचार ! यद्यपि तुम शुद्ध ग्रात्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तुम्हें तब तक अङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध प्रात्मतवको प्राप्त कर लू । (१०) समस्त पञ्च श्राचारोंमें लगनेमें अपनी शक्ति न छिपाने वाले वीर्याचार ! यद्यपि तुम सहज शुद्ध आत्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निर्विकार शुद्ध प्रात्मतत्त्वको प्राप्त कर लू । ( ११ ) इस प्रकार सद्भावनासहित यह श्रामण्यार्थी श्रामण्यसिद्धि के लिये किन्हीं भ्रमण प्राचार्यके निकट पहुंचता है । सिद्धान्त - ( १ ) श्रात्मा सतत सहजशुद्धात्मदृष्टिरूप पुरुषार्थ से शुद्धात्म स्थितिको प्राप्त होता है । दृष्टि - १ पुरुषकारनय (१८३ ) । प्रयोग - सहज शाश्वत शान्ति प्राप्त करनेके लिये सर्वसंगमुक्त होकर अविकार सहज ज्ञायकस्वभाव अन्तस्तस्वकी सतत आराधना करना ॥ २०२ ॥ अब इसके बाद वह कैसा होता है यह उपदेश करते हैं [ श्रमणं ] श्रमण [गुरणा] गुणाढ्य [कुलरूपवयो विशिष्टं च] कुल, रूप तथा वयसे विशिष्ट और [श्रमीः इष्टतरं] श्रमणको प्रति इष्ट [तम् श्रपि गणिनं ] ऐसे गणीको [ प्ररणतः ] प्रणत होता हुआ [ मास प्रतीन्छ sa] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा निवेदन करता हुआ [ श्रनुग्रहीतः ]] अनुग्रहीत होता है । शिक्षासे अनुगृहीत होता है । तात्पर्य- श्रामण्यार्थी प्राचार्य द्वारा दीक्षा टीकार्थ -- तदनन्तर श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुग्रहीत होता है । स्पष्टीकरणश्राचरण करनेमें और आचरण कराने में आने वाली समस्त विरतिको प्रवृत्तिके समान आत्मरूप श्रामण्यप के कारण 'श्रमरण' व ऐसे श्रामण्यका श्राचरण करनेमें और भाचरण कराने में प्रवीण होनेसे 'गुण: जय' सर्वलौकिक जनोंके द्वारा निःशंकतया सेवा करने योग्य होनेसे और
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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