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________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका ३८३ चार न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासोदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । ग्रहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्च महाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषणादाननिक्षेपण प्रतिष्ठापन समितिलक्षण चारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदामोदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । श्रहो अनशनाव मौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्यागविविक्तशय्यासन काय क्लेशप्रायश्चित्तविनय वैयावृत्यस्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गलक्षण तपश्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसोति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां ताव णांणदंसणचरिततपवरियायारं ज्ञानदर्शनचरित्रतपोवीर्याचारं द्वितीया एकवचन । निरुक्ति-- बध्नाति यः स बन्धुः बन्ध बन्धने, गृणाति असौ इति गुरुः, कलं त्राति इति कलत्रं पुनाति वंशं इति पुत्रः । समासबन्धूनां वर्गः बन्धुवर्गस्तं व०, गुरुश्च कलत्रं च पुत्रश्च इति गुरुकलत्रपुत्राः तेभ्यः गु०, ज्ञानं च दर्शनं च मनुष्यदेह बन्धुवर्ग में रहने वाले आत्मायो ! इस मनुष्पकी श्रात्मा आप लोगोंका कुछ भी नहीं है, इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूं, अब यह आत्मा अपने श्रनादिबन्धुके पास जा रहा है। (२) श्रामण्येच्छु पुरुष माता पिता कहता है कि इस मनुष्यशरीरके उत्पादकको श्रात्माश्रो ! इस मनुष्यका श्रात्मा तुम दोनोंके द्वारा उत्पन्न नहीं हुआ सो जानो और इस मुझ श्राछुट्टी दो, यह आत्मा अपने अनादिजनकके पास जा रहा है । ( ३ ) श्रामण्येच्छु पुरुष रमणी (स्त्री) से कहता है कि अहो इस मानवशरीरको रमाने वालोको श्रात्मा ! तुम -इस मनुष्यकी ग्रात्माको नहीं रमाती हो यह निश्चयसे जानो, अतः इस आत्माकी छुट्टी करो, -आज यह आत्मा अपनी श्रनादिरमणी स्वानुभूतिके निकट जा रहा है । (४) श्रामण्येच्छु पुरुष पुत्र से कहता है कि अहो इस जनशरीरके पुत्र की ग्रात्मा ! तुम इस जनशरीरकी श्रात्मासे उत्पन्न नहीं हुए हो, यह निश्चयसे जानो, अतः इस आत्माको छोड़ो, अब यह ग्रात्मा अपने ही अनादिजन्य प्रात्मके निकट जा रहा है । ( ५ ) श्रामण्यार्थी पुरुष माता पिता स्त्री पुत्र बन्धुवर्गसे अपनेको हटाकर अब पञ्च ग्राचारोंके धारणकी भावना करता है । ( ६ ) अहो भ्रष्ट प्रङ्गसे सम्पन्न ज्ञानाचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध श्रात्मा के स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तब तक तुमको श्रङ्गीकार करता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निविकार शुद्ध प्रात्मतत्वको प्राप्त कर लू । (७) ग्रहो ट प्रोंसे सम्पन्न दर्शनाचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध आत्मा के स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं, तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूँ, जब तक तुम्हारे प्रसादसे निविकार शुद्ध श्रात्मतत्त्वको प्राप्त कर तूं । (८) ग्रहो त्रयोदशाङ्गसम्पन्न चारित्राचार ! यद्यपि तुम सहजशुद्ध प्रात्माके स्वरूप नहीं हो यह निश्चयसे जानता हूं तो भी मैं तुमको तब तक भले प्रकार अङ्गीकार करता हूं, जब
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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