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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ श्रामण्येनाधिक होनमिवाचारतो विनाशं दर्शयति
गुशादोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो ति। होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥ २६६ ॥
मैं मि श्रमरण मदसे जो, गुरणी श्रमणका विनय नहीं करता।
वह गुणहीन मदवशी अनन्त संसारमें रुलता ॥ २६६ ॥ गुणतोऽधिकस्य बिनयं प्रत्येषको योऽपि भवालि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी !
स्वयं जघन्य गुणः सन् श्रमणोऽहमपोत्यवलेपात्परेषां गुणाधिकानां विनयं प्रतीच्छन् श्रामण्यावलेपवशात् कदाचिदनन्तसंसार्यपि भवति ।।२६६॥
नामसंज्ञ...गुणदो अधिग विणय पडिच्छग ज वि समण ति होज्ज ग णाधर जदि त अणंतसंसारि। धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपदिक-गु णतः अधिक विनय प्रत्येषकः यत् अपि श्रमण इति भवतु गणाघर यदि तत् अनन्तसंसारिन् । मूलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण-गणदो गणत:-पंचम्यर्थे अव्यय । अधिगस्स अधिकस्य-षष्ठी ए० | विणयं विनय-द्वि० ए० दिमछगो प्रत्येत्यषक: जो यः समणो श्रमण: गणाधरो ग णाधरः सो स: अणं तसंसारी अनंतसंसारी-प्रथमा एक० । होज्जं भवत्-प्र० एक० कृदन्त । होदि भवति-प्रथमा एकवचन किया । निरुक्ति -न ध्रियते इति अधर: (न+धृङ+अच्) धृद्ध अव. स्थाने तुदादि । समास-- गुरणेषु अधरः गुणाधरः, अनन्तः संसारः यस्य स अनन्तसंसारी ।।२६६॥
टीकार्थ स्वयं जघन्यगणों वाला होता हुआ भी 'मैं भी श्रमरण ' ऐसे गर्वके कारण दूसरे अधिक गुण वाले श्रमणोंसे विनयकी इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्वके वशसे कदा. चित् अनन्त संसारी भी होता है ।
प्रसंगविवरण---- अनन्तरपूर्व गाथामें जो श्रामण्यसे समान हैं उनका नादर न करने वालेका विनाश होना दिखाया गया है । अब इस माथ में यह बताया गया है कि जो श्रामण्य में अधिक हैं उन श्रमणोंके प्रति हीनकी तरह प्राचरणव्यवहार करने वालेका विनाश होता है अर्थात् उसके श्रामण्यका विनाश होता है।
तथ्यप्रकाश-(१) जो गुणहीन है वह 'मैं भी श्रमण हूं' ऐसे अहंकारभावसे लिप्त होकर अधिक गुण वाले श्रमणोंसे विनयको नाहता है । (२) जो गुणहीन होनेपर भी श्रमरणपनेका अहंकारभाव बनाकर गुणाधिक श्रमणोंसे विनय कराना चाहता है वह श्रामण्यके गर्वक पश होकर अनन्तसंसारी भी हो जाता है । (३) मैं भी श्रमणा हूँ, मैं इनसे पुराना दीक्षित हूं प्रादि गर्नके कारण जो साधु गुणाधिक श्रमणोंसे पानी विनय भक्ति करवाना चाहता है वह संसारमें जन्म मरण चिरकाल तक करता है, कदाचित् वह अनन्तसंसारो भी हो जाता है ।
सिद्धान्त----(१) गुणाधिक पुरुषोंमें द्वेषभाव हीनभाव रखनेरूप अशुद्ध भावनासे प्रशु
1992
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