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________________ १४४ सहजानन्द शास्त्रमालायां तन्नाया लुण्ठितशुद्धात्मतस्योपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति । अतो मया रागद्वेधनिषधायात्यन्तं जागरितव्यम् ।।८१।। किया । नमसरय-द्वितीया एक० । अप्पणो आत्मन:-पष्ठी एक० सम्म सम्यक अदि यदि-अव्यय । जहदि जहातिलहदि लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । गोले रागदंगी-दि० द्विवचन । सो स:-प्रथमा पाक: । अगाशं आत्मानं-द्वितीया एकः । सुद्ध मुद्ध-द्वितीया एक० । निरुक्ति–तस्य भावः तस्वं । समास---मगत: मोहः यस स: ब्यपगत मोहः, रागदच (पदन रागहें पौ तौ ।।८१ दूर करके भी सभ्य का आत्मतत्वको प्राप्त करके भी यदि जीव राग दूधको निर्मूल करता है तो वह शुद्ध लामाका अनुभव करता है । यदि पुनः पुनः भी गपका अनुसरण करता है, तो प्रमादके अधीन होनेसे लुट गया है शुद्धात्मतत्वका अनुभवरूप चितामरिंग रत्न जिसका, ऐसा वह अन्तरंग में खेदको प्राप्त होता है। इस कारण मुझे रागद्वेष को दूर करनेके लिये अत्यन्त जागृत रहना चाहिये । प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथामें अर्हत्स्वरूपविज्ञानको मोहालयका उपाय बताया। गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोह दूर करके प्रात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी यदि रागद्वेषको छोड़ा जाता है तो शुद्धात्माका अनुभव होता है । तथ्यप्रकाश---- (१) भूतार्थनिधिसे अहत्स्वरूपके परिचयसे सहजात्मस्वरूपका परि चय होता है 1 (२) सहजात्मस्वरूपके परिचयसे मोह दूर हो जाता है । (३) मोह हटनेपर समीचीन अात्मतत्त्वकी उपलब्धि होती है । (४) आत्मतत्त्वको उपलब्धि होने पर भी रागद्वेष का पूर्ण निर्मूलन होनेपर ही परिपूर्ण शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। (५) आत्मतत्त्वको उपलब्धि होनेपर भी यदि बार-बार रागद्वेष रूप परिमन किया जाता है तो प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि भी खतम हो जायगी । (६) अात्मतत्त्वको उपलब्धि नष्ट होनेपर अत्यन्त खेदको दशा बर्तने लगेगी। (७) विवेक का कर्तव्य है कि प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि होने पर प्रमाद (राग द्वेष) चोरोंसे सावधान रहे और रागद्वेषको समूल नष्ट करे । (८) सम्यक्त्व प्राप्त करके भी व सराग चारित्र प्राप्त करके मोक्षके साक्षात् साधनभूत वीतराग चारित्र पानेके लिये रागद्वेषका समूल प्रयत्न होना आवश्यक है। सिद्धान्त---यात्माका शुद्धभाव बर्तनेपर काँका प्रक्षय होता है । दृष्टि-..-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिक नय (२४ ब)। प्रयोग----रत्नत्रयकी 'उपलब्धि व पूर्णताके लिये अविकार सहजचिस्वभावको उपासना करके रागद्वेषसे छुटकारा पाना ॥१॥
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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