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________________ asininme n ५० सहजानन्दशास्त्रमालायां ''''''hinininin' isiriaisirsIIIIIIIIIIIIPOISimsastrIST निवतितोत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूप मेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचारवियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात् स खलु संपूर्णश्रामण्या साक्षात् श्रमणो हेलावकोसकलप्राक्तनकर्मफलत्वादनिष्पादितनूतनकर्मफलत्वाच्च पुन: प्राणधारणदेन्यमनास्कन्दन् द्वितीयभावपरावर्ताभावात् शुद्धस्त्र भावावस्थितवृतिर्मोक्षतत्वमवबुध्यताम् ।।२७२।। चिरं न इह तत् संपुणणसामण्ण । मूलधातु- जीव प्राणधारणे । उभयपदविवरण---अजधाचारविजुत्तो अयथाचारवियक्तः जपत्थपदणिच्छिदो यथार्थपदनिश्चित: पसंतप्पा प्रशान्तात्मा सो स: संपूष्णसामण्णो संपूर्ण थामध्य:-प्रथमा एकवचन । अफले-सप्तमी एक- । चिरं ण न इह-अव्यय । जीवदि जीवति-वर्तभान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति- सम् पूरयतिस्म इति संपूर्णम् (सम् पूर+क्त) पूरी आप्यायगे । समास-अयथाचारेण वियुक्तः, अयथाचारवियुक्तः, प्रशान्तः आत्मा यस्य सः प्रशान्तात्मा, ... सांपूर्ण थामण्यं यस्थ सः पूर्णश्रामण्यः ॥२७२॥ है आत्मा जिसका [स: संपूर्णश्रामण्यः] ऐसा वह सम्पूर्ण श्रामण्य वाला जीव [अफले] कर्मफलरहित हुए [इह] इस संसार में [चिरं न जीवति] चिरकाल तक नहीं रहता। तात्पर्य-निर्दोष प्राचरमरा वाला यथार्थनिश्चयी शान्त श्रमण अल्पकाल में ही मुक्त हो जाता है। ____टोकार्थ-जो (श्रमण) त्रिलोककी चूलिकाके समान निर्मल विवेकरूपी दीपकके प्रकाश वाला होनेसे यथावस्थित पदार्थनिश्चयसे उत्सुकताको दूर करके स्वरूपमथर रहनेसे सतत 'उपशांतात्मा' वर्तता हुना, एक स्वरूपको ही अभिमुखतया पाचरता हुअा 'अयथाचार रहित' हुया नित्यज्ञानी है, वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले साक्षात् श्रमणको मोक्षतत्व जानना, क्योंकि वह पहलेके सकल कोंके फलको लीलामात्रमें नष्ट कर देने से और नूतन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करनेसे पुनः प्राण धारणरूप दीनताको प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तनके अभावके कारण शुद्धस्वभावमें अवस्थित वृत्ति बाला रहता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें संसारतत्वको उखाड़ डाला था । अब इस गाथा में मोक्षतस्वका उद्घाटन किया गया है। तथ्यप्रकाश---१- जिनको शुद्धात्मस्वभावमें वृत्ति स्थिर होती है और द्वितीय (अन्य) भावमें कभी नहीं आते वे श्रमण मोक्षतत्त्व हैं । २- श्रमण स्वरूपदृष्टिकी लीलामात्रमें समस्त कर्मफलोंको बिखेर डालते हैं नबीन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करते, अतएव पुनः प्राण धारणको दीनताको प्राप्त नहीं होते । ३-मोक्षतस्वरूप श्रमण निर्मलविवेक प्रकाशयुक्त होनेसे यथार्थ पदार्थका निश्चय कर लेनेसे उत्सुकतावोंके क्षोभसे रहित हैं, अत एव स्वरूपमें तृत होनेसे अब स्वरूपसे बाहर निकलनेमें अलसाता है । ४-यथार्थज्ञानी प्रशान्तात्मा श्रमण एक
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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