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________________ watiwwwwwwwsanskamways प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका ५०६ r AMASModi-Mahamandutomwwwwwstracetamanne । अथ भोक्षतत्त्वसाधनतत्वमुद्घाटयति----- सम्म विदिदपदत्या चत्ता उवहिं बहित्थमझत्यं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्ध ति णिदिवा ॥२७३॥ सम्यक् पदार्थवेत्ता, बहिस्थ मध्यस्थ सब परिग्रह तजि । अनासक्त विषयों में, जो हैं वे शुद्ध कहलाते ॥ २७३ ।। सम्यग्विदितपदार्थास्त्यबत्योपधि बहिस्थमध्यस्थम । विषयेषु नाबसक्ता ये ते शुद्धा इति निविष्टा ।।२५३॥ अनेकान्तकलितसकलज्ञातृज्ञेयतत्त्वयथावस्थितस्वरूपपाण्डित्यशोण्डाः सन्तः समस्तब. हिरलान्तरङ्गसङ्गतिपरित्या विविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचैतन्यभास्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषुप्त कल्पान्तस्तत्त्व वृत्तितया विषयेषु मनागव्यासक्तिमनासादग्रन्तः समस्तानुभाववन्तो नामसंज्ञ-सम्म णिनिद्रपदस्थ उहि बहिस्थमज्भस्थ विसय ण अवसत्त ज त सुन्द्र ति णिहिट । धातुसंज्ञ-णि दिस प्रेक्षणे दाने च । प्रातिपदिक-सम्यक् विदितपदार्थ उपधि बहिस्थमध्यस्थ विषय न अवसक्त यत् तत् शुद्ध इति निदिष्ट । मूलधातु-निर दिश अतिसर्जने । उभयपदविवरण... सम्म सम्यक शान त्ति इति-अव्यय । विदिदपदस्था विदितपदार्था:-प्रथमा बहुवचन । चत्त त्यक्त्वा सम्बन्धार्थप्रकिया अव्यय । उहि उपचि बहिस्थ मज्झत्थं बहिस्थमध्यस्थ-द्वि० एक० । विसयेसु विषयेशु-सप्तमी बहु । सहजात्मस्वरूपकी अभिमुखतासे वृत्ति करते हैं, अतएव स्वच्छन्दाचारसे रहित नित्य ज्ञानी होता हुआ अब इस संसारमें चिर काल नहीं रह सकता, अल्पकालमें ही मुक्त हो जाता है । . सिद्धान्त-(१) मोक्षतत्त्वरूपश्रमणा अखण्ड अन्तस्तत्त्वका अभेद दर्शन करते हैं। दृष्टि-.-१-शद्धनय (४६) । प्रयोग--संसारसंकटों से छुटकारा पाने के लिये यथार्थज्ञानी निःशल्य निर्गन्ध प्रशान्तात्मा होकर स्वरूपमें उपयुक्त होनेका सहज पौरुष होने देना ॥२७२॥ अब मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व उद्घाटित करते हैं।—[सम्यग्विदितपदार्थाः] यथार्थतथा जाना है पदार्थों को जिनने [ये ऐसे जो श्रमण [बहिस्थमध्यस्थम्] बहिरंग तथा अन्तरंग [उपधि] परिग्रहको [त्यक्त्वा] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ताः] विषयों में प्रासक्त नहीं हैं, ति] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टाः] 'शुद्ध' कहे गये है। तात्पर्य----यथार्थज्ञानी निःसंग विषयानासक्त श्रमण शुद्ध कहे गये हैं। रोकार्थ-अनेकान्तके द्वारा कलित सकल ज्ञातृतत्व और ज्ञेयतत्त्वके यथास्थित स्व. रूपमें प्रवीण होते हुए समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग संगतिके परित्यागसे विविक्त अन्तरंगमें चकचकायमान है अनन्तशक्तिवाले चैतन्यसे तेजस्वी आत्मतत्त्वका स्वरूप जिनका, स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त समान प्रशांत अात्माकी परिणति रहनेसे विषयोंमें किचित् भी आसक्तिको HEAHOSAREE
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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