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________________ प्रवचनसार -...सप्सदमाङ्गी टीका १४१ तत्परिच्छेद सर्वात्मपरिच्छेदः । तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुरगः, अन्वयव्यतिरेका: पाया । तब भगवत्यर्हति सर्वतो विशुद्धे त्रिभूमिकमपि स्वमन सा समय पश्यति । यश्चेतनोव्यमित्या व्यस्तव्यं, यच्चान्वयाश्रित चतन्यमिति विशेष स गुग:, थे चैव समय मात्राववृत. कालपरिमागतया परस्परपरावृत्त। अन्यन्यतिरेकास्ने पर्यायाचिद्विवर्तन ग्रन्धय इति यावत । अर्थवमस्य निकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानोच प्रलम्बे प्रालम्बे चिद्विवतश्चेतन एव संक्षिय विशेषणविशेष्यत्ववासनान्तर्धानाद्धवलिमानमिव पालम्बे वेतन व चैतन्य मन्तहित लय । मलधात-ज्ञा अवबोधन, या प्रापणे । उभयपदविवरण--जो यः सोमः माहो माहः-प्रथमा ए | भरहत्त अहन्त अप्पाणं आत्मानं लय- ा य..। दसगुणत्तपञ्जयतेश द्रव्यत्वगुणत्व गवत्य:-ननीया यवत्वनः । तस्सं तस्य-षष्ठी, एक.० । जाणदि जानाति जादि याति-चतमान लद न्य पाएक० क्रिया । पर्ययत्व से भगवानको जानता है उसका मोह नष्ट हो जाता है । टीकार्थ---जो वास्तवमें अरहनको द्रव्यरूपसे, गुशारूपसे और पर्यायरूपसे जानता है वह वास्तव में अपने आत्माको जानता है, क्योंकि दोनोंके भी निश्चयसै अन्तर नहीं है । पर. "हंसका भी अन्तिम तावको प्राप्त सोने के स्वरूपवी तरह अात्मस्वरूप परिस्पष्ट है, इसलिये उसका ज्ञात होनेपर सर्व यात्माका ज्ञान होता है । वहाँ अन्वय द्रव्य है । अन्वयका विशेषरण गुगा है और अन्वयके व्यतिरेक अर्थात भेद पर्यायें हैं। सर्वत: विशुद्ध भगवान अरहंत में जीव विभूमिक याने द्रव्यगुणपर्याययुक्त समयको (निज प्रात्मको) अपने मन से जान लेता है, समझ लेता है। यह चेतन है। इस प्रकार का जो अन्वय है वह द्रव्य है । अन्वयके आश्रित रहने वाला बतन्य' विशेषण वह गुण है, और एक समय मात्रकी मर्यादा वाला कालपरिमाण होनेसे परस्पर अनवृत्त अन्वयव्यतिरेक वे पर्यायें हैं जो कि चिक्विर्तनकी अथान प्रात्माके परिणमन की अधियाँ हैं । अब इस प्रकार कालिक अात्माको भी एक काल में समझ लेने वाला वह जीव, मुलते हुए हारमें मोतियोंकी तरह चिद्विवर्तीको चेतनमें हो अन्तर्गत करके तथा विशेपण विशेष्यताको वासनाका अन्तनि होनेसे हार मे सफेदीको तरह चैतन्यको चेतन में ही अन्तहित करके, मात्र हारकी तरह केवल प्रामाको जानते हुए के उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता क्रियांका विभाग क्षीयमाण होने से निस्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त हुएके उत्तम मरिएकी सरह निर्मल प्रकाश अ रूस प्रतिमान है जि.स. १, रे से उस जीद के, मोहांधकार निराश्नबलाके कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है । यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेनाको जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि चारित्र अङ्गीकार करके भी
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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