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________________ १४२ सहजानन्दशास्त्रमालायां । विधाय केवल प्रालम्बमित्र केवलमात्मानं परिच्छिन्दतरतदुत्तरोत्तर क्षणक्षीयमानवल भक्रियाविभागतया निक्रियं चिन्मानं भवधिगतस्य जातस्य मरगेरियाकम्पप्रवननिर्मलालोवस्याव ममेव निराश्रयतया भोहतमः प्रलीयते । यद्येवं लब्धो मया मोहवाहिनी विजयोपायः ।। ८० ॥ निरुक्ति-अति इति आत्मा, लयन लय: । समास---ध्यत्व गुणन्य पयल चौत व्यत्वगुणत्वपमेयत्वानिनः द्र.1001 यदि शुभोपयोगानुवृत्तिवश होकर मोहादिक विकारको उखाडकर नहीं फेंकता हूं तो मेर शुद्धास्मत्वका लाभ वैसे हो सकता है ? अब इस गाथामें उसी मोहादिकको उखाड़ फेंकने के एक उपायका प्रकाशन किया है। तथ्यप्रकाश... (१) निश्चयतः अरहंत प्रभुका द्रव्यत्व और मेरा ध्यान समान है, क्योंकि साधारणासाधारमा गुणमय द्रवणशील अनादि अनन्त प्रात्मरब सब अात्माकाका समान है । (२) अरहंत प्रभु और मैं गुणरूपसे समान हैं, क्योंकि एकल्प चैतन्य गुण सब प्रात्भावों का समान है। (३) अरहतप्रभुमें और मुझमें पर्यायरूपसे अन्तर है, क्योकि प्रभु राग द्वेषसे रहित व सर्वज्ञ हैं, मैं राग द्वेषसे सहित व अल्पज्ञ हूं । (४) पर्याय कृत अन्तर द्रव्यरूपसे, अभेद गुरारूपसे पाल्माकी उपासना करने पर दूर हो जाता है । (५) अरहंतका पर्याय प्रात्मद्रव्य व गुणके पूर्ण अनुरूप है, अतः प्ररहतको जानने से अपने अन्तःस्वरूपका परिचय सुगम हो जाता है । (६) अनादि अनन्त प्रात्माको जानते समय गुरग व पर्यायोंका अात्मामें ही अन्तर्धान हो जाता है और वहां गुरग पर्यायके भेदका विकल्प नहीं रहता । (७) गुरण पर्याय के भेद विकल्पसे प्रतीत अन्तस्तत्त्वके जानते समय परिणाम परिणाम परिणतिका भेद विकल्प भी नष्ट हो जाता है । (८) निर्विकल्प अन्तस्तत्त्वका अनुभविता यात्मा निष्क्रिय चिन्मात्रभावको प्राप्त होता है । (६) निष्क्रिय चिन्मात्रभावको प्राप्त आत्माके मोह अन्धकार प्रलयको प्रारत होता है। (१०) अरहतप्रभुको द्रव्य गुण पायरूपसे जानना मोहथिनाशका एक सुगम उपाय है, क्योंकि अरहंतप्रभुका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है । (११) अरहंत प्रभुका स्वरूप निरखनेपर विषमताविकल्प न होने के कारण सहजज्ञानानन्दस्वरूपका अनुभव सहज बन जाता है । (१२) अरहत भगवानके परिचयके लिये अरहंतके द्रव्य गुण पर्यायका परिचय किया जाता है । (१३) अरहंत प्रभुके परिचयके बाद परमात्माके गुण थे पर्यायोंको परमात्मद्रव्यमें समाविष्ट कर देपर गुण पर्यायके विकल्पसे छूटकर मात्र यात्म द्रव्यका जानना होता है और तब सहज अानन्दका अनुभव होता है । (१४) लोकमें भी हार खरीदते समय हार सफेदी मोती आदिकी परीक्षा की जाती है, किन्तु हारके पहिननेके समय सफेद मोती
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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