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________________ SARASirisisesianRail प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका पास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाङ्मन:कारकाचेतनद्रव्यत्वमस्ति, तानि खलु मो कर्तारमन्तरेणाभि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कर्तृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्य. स्थः । न च मे स्वतन्त्र शरीरवाइमन कारकाचेतन द्रव्यप्रयोजकत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकप्रयोजकमन्तरेणापि क्रिपमाणानि । ततोऽहं तत्कारकप्रयोजकत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्त मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाङ्मनःकारकाचेतन द्रव्यानुज्ञातृत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकानुज्ञातारमन्तरेणापि क्रियमाणानि ततोऽहं तत्कारकानुज्ञातृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यत मध्यस्थ।। १६० ॥ ण एवं कत्तार । धातुसंज-कर करो. मन्न अवबोधने। प्रातिपदिक...न अस्मत देह न मनस् न च एव वाणी न कारण तत् कर्तृ न न कारयित अनुमंतृन एवं कर्तृ । मलधातु- डुकृत्र करो. मनु अवबोधने । उभयपदविवरण...ा न एच-अव्यय 1 अहं देहो देहः मणो मनः वाणी कारण कत्ता कर्ता कारयिदा कारयिता अणुमंता अनुमंता-प्रथमा एकवचन । तेसिं तेषां कत्तीर्ण कर्तृणाम्-पष्ठी बहुवचन । निरुक्तिदिह्यते यः स देहः दिह उपचये, मन्यते बुध्यते अनेन इति मन:, वणनं वाणी वण शब्दे ।। १६० ॥ हो वे बास्तवमें किये जाते हैं। इस कारण यह मैं उनके कर्ताके प्रयोजकत्वका पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूं 1 और मेरे स्वतन्त्र शरीर, वाणी तथा मन का कोरकभूत अचेल नद्रव्य का अनुमोदकपना नहीं है। निश्चयत: वे मुझ कारक-अनुमोदकके बिना ही अर्थात् उनके कर्ताका अनुमोदक हुये बिना ही किये जाते हैं। इस कारण उनके कर्ताके अनुमोदक होनेका पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें परद्रव्यके संयोगके कारणभूत प्रशद्धोपयोगके विनाशका अभ्यास कराया गया था। अब इस गाथामें शरीरादिक परद्रव्यके विषय में माध्यEx स्थ्य भाव प्रकट किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) मेरा शरीर प्रादि सर्व परद्रव्यों में माध्यस्थ्य भाव है। (२) शरीर, बचनमनको मैं परद्रव्यरूपसे जानता हूं। (३) परद्रव्यरूप शरीर वचन मन आदि समस्त पदार्थोंमें किसी में भी मेरा कुछ भी पक्षपात नहीं है । (४) मैं शरीर वचन मन के स्वरूपका साधारभूत नहीं हूं, वे सब मुझसे भिन्न हो अपने स्वरूपको धारण करते हैं । (५) मैं शरीर वचन मनका कारणभूत नहीं हूं, वे मुझ उपादानसे भिन्न ही अपने कारण वाले हैं । (६) मैं शारीर वचन मनका कर्ता नहीं हूं, वे मुझ कर्ताके बिना ही अपने उपादान मत अचेतन द्रव्य के द्वारा ही किये जाने वाले हैं। (७) मैं शरीर वचन मनका प्रयोजक नहीं हूं, वे मेरे प्रयोजनके बिना ही अपने उपादानभूत अचेतन द्रव्यके सत्त्वके प्रयोजनसे क्रियमारा हैं । (८) मैं शरीर वचन मनका अनुमोदक भी नहीं हूं, वे मुझ अनुमोदकके बिना ही क्रियमाण हैं । (६) SESS m www WITTE ES8E www
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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