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________________ ३०४ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ शरीरादावपि परद्रव्ये माध्यस्थं प्रकटयति- गाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसि | कत्ता कारयिदा मंता गोव कत्तीणं ॥ १६०॥ देह न मन नहि वाणी, उनका कारण भि हूं नहीं मैं यह । कर्ता न कारयिता, कर्ताका हूँ न अनुमोदक ।। १६० ।। नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषाम् । केही न न कारयिता अनुमन्ता नंद कतु णाम् ।। १६० ।। शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातो. ऽस्ति । सर्वाप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । तथाहि(---न खल्वहं शरोरवाङ्मनसां स्वरूपाघार भूतमचेतनद्रव्यमस्मि तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मनः स्वरूपं धारयन्ति । ततोऽहं शरीरवाड़ मनःपक्षपानमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । न च मे शरीरवाङ्मनः कारणा वेतनद्रव्य स्वमस्ति लानि खलु मां कारणमन्तरेणापि कारणवति भवन्ति । ततोऽहं तत्कारणत्वातम नामसंज्ञ- अहं देह ण मग ण न एक वाणी छ कारण त कत्तार ण ण कारविहार अणुमंतार अब शरीरादि परद्रव्यमें भी माध्यस्य भाव प्रगट करते हैं-- [ अहं न देहः ] मैं न देह हूँ. [न] मनः ] न मन हूं, [च] और [न एवं वारणी ] न वाणी ही हैं; [तेषां कारण न] उनका कारण नहीं हूं [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ. [ कारयिता न] कराने वाला नहीं है; [कां प्रतुमन्ता न एवं ] और कर्ताका अनुमोदक भी नहीं हूं । तात्पर्य -- मैं परद्रव्यसे अत्यंत निराला हूँ । टोकार्थ -- मैं शरीर, वाणी और मनको परद्रव्यके रूपसे समझता हूं, इसलिये मुभ उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है। मैं उन सबके प्रति अत्यंत मध्यस्य हूं | स्पष्टीकरण-वास्तव में मैं शरोर, वाणी और मनके स्वरूपका ग्राधारभूत श्रवेतन द्रव्य नहीं हूं, वे वास्तव में मु स्वरूपाधारके बिना ही अपने स्वरूपको धारण करते हैं। इसलिये मैं शरीर, वाणी और मनका पक्षापत छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे शरीर वाणी तथा मनका कारण भूत वेतनद्रव्यपता नहीं है । ये निश्वयतः मुझके कारण हुए बिना ही कारणवान हैं। इस कारण उनके कारणत्वका पक्षपात छोड़कर यह में अत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे स्वतंत्र शरीर, वाणी तथा मनका कर्ताभूत असेननद्रव्यपना नहीं है। वे निश्चयतः मुमके कारण हुए बिना ही किये जाते हैं। इस कारण उनके कर्तृस्वका पक्षपात छोड़कर यह मैं प्रत्यन्त मध्यस्थ हूं। और मेरे स्वतन्त्र शरीर, वाणी तथा मनका कारकभूत प्रचेतन द्रव्यका प्रयोजकपना नहीं है । वे निश्चयतः मुझ कारक प्रयोजकके बिना ही अर्थात् मैं उनके कर्ताका प्रयोजक हुये बिना 1
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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