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________________ देश वाम तामसम--समअटू वत्त प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका २६५ प्रय कालाणोरप्रदेशत्वमेवेति नियमति--- सुमो द अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दबजादस्स । वदिवददो सो वदि पदेसमागासदव्वस्स ॥१३॥ काल है प्रप्रदेशी, उसका पर्याय समय यो जानो। जिलने में आ नभका, प्रदेश इक लांघ जाता है ।।१३८॥ समयस्त्वप्नदेशः प्रदेशमा त्रस्य राजालन्य । व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ।। १३८ ।। प्रदेश एवं समयो द्रव्ये प्रदेश मात्र त्यात् न च तस्य गुद्गलस्येव पर्या येणाप्यनेकप्रदे. सपदेसमल दव्यजाद वदिवदन्त त पदेस आगरा दन्छ । वतने । प्रातिपदिक-समय तु प्रदेश प्रदेशमात्र द्रव्यजात व्यतिपतत् वः प्रदेश आकाशद्रव्य । मुलधातुतु वर्तन । उभयपदविवरण.... समो समयः अपदसो अप्रदन: प्रथमा एकवचन । पदं समेत्तस्स प्रदेशप्रदेश कहते हैं । ३-जैसे विस्तृत प्रकाशके अविभागी अंशको प्रदेश कहते हैं, ऐसे ही विस्तृत अन्य द्रव्योंके अविभागो अंशको भी प्रदेश कहते हैं । ४-प्राकाश द्रव्य के प्रदेश एकारांच्याप्यांश से गणना करने पर अनन्त हैं, इस कारण अाकाश बहुप्रदेशी (अनन्तप्रदेशी) है । ५-धर्मद्रध्य अधर्मद्रव्य, एक जीव द्रव्य के प्रदेश एकारगुप्याप्यांशसे गणना करनेपर असंख्याल प्रदेश हैं, अतः ये भी बहुप्रदेशी असंख्यात प्रदेश) हैं । ६-जीवद्रव्य के प्रदेश धर्म व अधर्मद्रव्यको तरह अवस्थित नहीं हैं, जीव प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है, तथापि प्रत्येक जीव द्रव्य असंख्या. तप्रदेशी ही है उसके प्रदेश कम या अधिक नहीं होते । ७- पुद्गल द्रव्य वस्तुत: द्रव्यसे एक प्रदेशी है, किन्तु स्कन्धपर्यायकी दृष्टि से बहुप्रदेशी अर्थात संख्यातप्रदेशी, प्रसंस्थान प्रदेशी व मनन्तप्रदेशी हैं, क्योंकि परमाणुवोंमें द्विप्रदेशी आदि स्कंध होनेके कारणभूत उस प्रकार के स्जिव रूक्ष गणके परिणमनेको शक्ति होती है ! सिद्धान्त-- १-परमाणु स्कंधपर्याय की दृष्टि से बहुप्रदेशी है । २-धर्म, अधर्म, अाकाशा व प्रत्येक जीवद्रव्य बहुप्रदेशी हैं । ३-परमाणु व कालद्रव्य एक प्रदेशी हैं । दृष्टि-१-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार (६७) । २-प्रदेशविस्तार दृष्टि । (२१७)। प्रयोग-~~-सर्वद्रव्योंका परिचय पाकर निज परमात्मद्रव्यसे अतिरिक्त सर्व पदार्थोसे उपयोग हटा कर निजपरमात्मद्रव्यमें उपयोग लगाना ॥१३७।। अब 'कालाण प्रप्रदेशी ही है' यह नियम कहते हैं--[समयः तु] काल तो [प्र. - देशः] प्रप्रदेशी है, [प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य] प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु [आकाशद्रव्यस्य प्रवेशं | आकाश द्रव्यके प्रदेशको [भ्यतिपततः] मंदगतिसे उल्लंघन कर रहा हो तब [सः
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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