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________________ २२६ सहजानन्दशास्त्रमालायां स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात् पयःपूरवत् । यथा खलु पयःपूरः प्रदेशस्वादाम्यां पिचु. मन्दचन्दनादिवनराजी परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादुत्व स्वभावमुपलभते, तयात्मापि प्रदेशभावाभ्यां कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्वस्वभावमुपलभते ।। ११८ ।। निवृत्त न हि तत् लब्धस्वभाव परिणममान स्त्रकर्मन् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, अलभप प्राप्तौ । उभयपदविवरण----णरणारयतिरियतुरा मरनारकति यंत्रासुराः जीवा जीवा; गामकम्मणिवत्ता नामक्रमः निर्वृत्ताःते लद्धसहावा लब्धस्वभावाः परिणममाणा परिणममाना:-प्रथमा ववचन । सकरमाणि कांग्य-द्वितीया बहवचन । निरुक्ति-...जीवन्तीति जीवः । समास-नरश्च नारकरच लियंक सुरश्च नर नारकतिर्यसुराः, नामकर्मणानिवृत्ताः इति नामकर्मनिर्वृत्ताः, लब्धः स्वभावः यरत लब्धस्वभावाः ॥११॥ स्वभावका अभिभव नहीं है । जो वहाँ जीव स्वभावको उपलब्ध नहीं करता, अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणामन होनेसे है, पानीके पूरको तरह । जैसे---पानीका पूर प्रदेशसे पौर स्वादसे निम्ब-चन्दनादि वन पंक्तिरूप परिणामता हुआ अपने दैवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेशसे और भावसे स्वकर्मरूप परि. णमन होनेसे अपने अमूर्तत्व और निरूपराग-विशुद्धि मत्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता। प्रसंग विवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें मनुष्यादि पर्यायोंको जीवकी विभावक्रियाको फल बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि मनुष्यादि पर्यायों) जीवके स्वभाव का अभिभव किस कारण होता है। तथ्यप्रकाश---(१) ये मनुष्यादि पर्याय नामकर्मके द्वारा रचे गये हैं। (२) मनुष्यदेह में प्रातमा ठहर रहा है इतने मासे जीवके स्वभावका अभिभव नहीं होता जैसे कि अंगठी में हीरा जड़ा है इतने मात्रसे होराको ज्योतिका अभिभव नहीं है। (३) जीव वहाँ अपनी विभा. यक्रियासे परिणाम रहा है इस कारण जीवके स्वभावका अभिभव है जैसे कि जलका पुर नीमा व चन्दनके पेड़के संगमें पेडरूप परिणम कर अपने द्रवत्त व स्वादको खो बैठता है। (४) जीव पौद्गलकर्मविपाक प्रतिफलनके प्रसंगमें विभावक्रियारूप परिणमनेसे अधिकार स्वच्छ प्रतिभास स्वभावको तिरस्कृत कर देता है । (५) स्वपरभावभेदविज्ञानी जीव पौदगलकर्मवि पाकप्रतिफलतके समय ज्ञानदृष्टिके बल द्वारा बुद्धिपूर्वक विभावक्रियारूप न परिणमनेसे अवि कार स्वच्छ प्रतिभास स्वभावका दर्शक होता है जिसकी दृढ़ताके बलसे स्वभावका आविर्भाव होता है। सिद्धान्त-(१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव स्वभावका अभिभव कर विकार । रूप परिणामता है। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । Stop नाम ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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