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________________ । 50 प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका प्रय श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एवं प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति-- चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणोसु य जो सो पडिपुण्णासामण्णणो ॥२१४॥ दर्शनज्ञानस्वभावी, स्वद्रव्यप्रतिबद्ध शुद्ध वर्तक हो । मूलगुणमें प्रयत हो, विशुद्ध उपयोगधारक हो ॥२१४॥ चरतिः निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः म परिपूर्णधामण्यः ।। २१४ ।। एक एव हि स्व द्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन माजितोपयोगरूपस्थ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावदेिव परिपूर्ण थामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धन मूलगणप्रयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शन स्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमा वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥२१४।। नामसंज्ञ-णिबद्ध रामण गिलं णाण सणमुह पयद मूलगुण य ज त पडिपुष्णसागण्ण । धातुसंज्ञ-चर गाली । प्रातिपदिक-निबद्ध नित्यं श्रमण ज्ञान दर्शन मुख प्रयत मूलगुण च यत् तत् परिपूर्णश्रामण्य 1 मूलमात--चर गत्यर्थः । उभयपदविवरण-घरदि चरति-दर्त० अन्य एका० श्रिया । णिवतो निबद्धः समणो घमणः पयदो प्रयत: जो यः सो सः पडिपुष्णसामण्यो परिपूर्णश्रामण्य-प्रथमा एकवचन । णिचं नित्यं य न-अव्यय 1 णाणम्हि ज्ञाने दंसणमुहम्मि दर्शनमुखे-सप्तमी एक० । मूलगुणेसु मूलगुणेषु-सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति-नियमेन भवं नित्यं वि -- त्यम् । समास- परिपूर्ण श्रामण्यं यस्य तत् परिपूर्णश्रामण्यम् KROMAN MANESAX की परिपूर्णताका आयतन है; उसके सद्भावसे ही परिपुर्ण श्रामण्य होता है । इसलिये सदा मानमें और दर्शनादिकमें प्रतिबद्ध रहकर मूल गुणीमें प्रयत्नशीलतासे विचरना, और ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध-शुद्ध प्रस्तित्वमात्ररूपसे वर्तना, यह गाथाका तात्पर्य है। प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया है कि श्रामण्यको निर्देषिताके लिये परद्रव्यों का सम्बन्ध हटाना चाहिये। अब इस गाथामें बताया गया है कि श्रामण्यका परिपूर्ण प्रायत्तत होनेसे स्वद्रव्यमें हो उपयोग बनाये रहना चाहिये। ME तथ्यप्रकाश-(१) स्वसहजात्मस्वरूपके ही अभिमुख रहना ही श्रामण्यका परिपूर्ण मायतन है । (२) स्वद्रव्य के अभिमुख रहना ही उपयोगको शुद्ध बनाता हैं । (३) वास्तवमें श्रामण्य उपयोगको निर्मल बनाना ही है । (४) स्वद्रव्यप्रतिबन्धसे ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है। (५) परिपूर्ण श्रामपयकी सिद्धि के लिये सदा ही ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मतत्व में उपयुक्त रहना चाहिये। सिद्धान्त-(१) शुद्ध अन्तस्तत्त्वकी भावनासे प्रात्मा निर्दोष होता है । RE
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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