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________________ E २३६ चेतना पुनर्ज्ञानकर्मकर्मफलत्वेन वा । तत्र ज्ञानपरिणतिज्ञनचेतना, कर्मपरिणतिः कर्मचेतना, कर्मफल परिणतिः कर्मफलचेतना ॥ १२३ ॥ सहजानन्दशास्त्रमालायां शब्दार्थः । उभयपदविवरण परिणमंद परिणमति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। चदणाए चेतनया तृतीया एक आदा आत्मा वेदणा चेतना-प्रथमा एक । तित्रा विधा पुण पुनः वा अध्यय 1 अभिमा अभिमता-प्रथमा एक कृदन्त किया। सा-प्र० ए० गाये जाने कम्मे कर्मेण फलम् फलेसप्तमी एकवचन | कम्मणो कर्मण:- पृष्टी एक भणिदा भणिता-प्र० एक० कृदन्त किया । निरुक्ति... (चेत्यते अनया इति चेतना ॥ ११३ ॥ क्षमता है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) श्रात्माका स्वरूप चेतना ही है, क्योंकि चेतना हो आत्मा के सब परिणामों में व्यापक है । ( २ ) ग्रात्मा चेतनासे हो परिणमता रहता है । (३) चेतना ज्ञानचेतना कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके रूपसे तीन प्रकारकी है । ( ४ ) यहाँ चेतनाके उक्त सोन प्रकार निश्चयदृष्टिसे कहे गये हैं अतः आत्माकी शुद्ध अशुद्ध सभी स्थितियों में घटिल होंगे । (५) ज्ञानकी परिणति ज्ञानचेतना है । ( ६ ) ज्ञानके कार्यकी परिणति कर्मचेतना है । ( ७ ) ज्ञानके कार्यके फलको परिणति कर्मफलचेलना है । 5 ) अशुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भाव में यह मैं हूं ऐसी चेतनाको अशुद्ध ज्ञानचेतना अथवा अज्ञानचेतना कहते हैं । ( ६ ) शुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भावमें इसे मैं करता हूं ऐसी चेतनाको शुद्ध कर्मचेतना कहते हैं । (१०) अशुद्ध स्थिति में ज्ञानातिरिक्त अन्य भावमें इसे मैं भोगता हूं ऐसी चेतनाको कर्मफलचेतना कहते हैं । ( प्रशुद्ध सिद्धान्त - ( १ ) ग्रात्मा निश्चयतः अपने ज्ञानको व ज्ञानवृत्ति व ज्ञानवृत्तिफलको चेतता है । दृष्टि - १ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रयोग मैं अपने हो स्वरूपको अपनी न्दादिको अनुभवता हूं ऐसा वस्तुस्वरूप जानकर भावना व परम विश्राम पाना ॥ १२३ ॥ परिणतिको अपनी ही परिणतिके फल ग्रानअन्यविषयक विकल्प छोड़कर अपनेको अनु अव ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप अपने समीप निरखते हैं-- [ श्रर्थविकल्प: ] स्व-पर पदार्थों का प्रभासन [ ज्ञानं ] ज्ञान है; [ जीवेन] जीवके द्वारा [ यत् समारब्धं ] जो किया जा रहा हो [ तत् कर्म ] वह कर्म है, [ अनेकविध ] और अनेक प्रकारका [ सौख्यं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [ फलं इति भणितम् ] कर्मफल कहा गया है । तात्पर्य - प्रर्थप्रतिभास ज्ञान है। शुद्ध, शुभ व अशुभ भावकर्म हैं, निराकुलता या
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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