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________________ १८० सहजानन्दशास्त्रमालायां -MAMAarm.nwurnmomenwww.www. www c RANIRAMANANCIASTER om प्रवृत्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रित सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्य लक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेक खरुखवबोधन्यम् । एवं सदित्यभिधान सदिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपरामशि स्यात् । यदि पुनरिदमेव न स्यात्तदा किचित्सदिति किंचिदसदिति किचित्सच्चासच्चेति किंचिदवाच्यमिति च स्थात् । तत्तु विप्रतिषिद्ध मेव प्रसाध्यं चतदनोकहवत् । यथा हि बहूनां बहुविधानामनोवाहाना मात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षण भूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मी यात्मीयस्य विशेष लक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । यथा च तेषामनोकहानां सामान्यलक्षणभूतेन साहश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेष लक्षणभूसस्य स्वरूपास्तित्वावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि सामान्यलक्षणभूतेन सर्वगत, उपदिशत् खलु धर्म जिन वरवृषभ प्रज्ञप्त । मूलधातु-लक्ष दर्शनाङ्कनयोः, अज्ञप ज्ञापने 1 उभयपदविबरणा-... इह इति खल-अव्यय । विविहलक्खणाणं विविधलक्षणानां-षष्ठी एकवचन । लक्खणं लक्षणं एग एक सत् सव्वगयं सर्वगत-प्रश्वमा एकवचन । उवदिसदा उपविशता-तृतीयो एक० 1 धम्म धर्म पण्णत्तं प्रज्ञात-द्वितीया एक । जिणवरवस हेण जिनवरवृपभेण-तृ० ए० । निरुक्ति-धरति उत्तमे सुखे इति धर्मः) टीकार्थ-- इस विश्वमें, विचित्रताको विस्तारित करते हुये अन्य द्रव्योसे पृथक् रहकर प्रवर्तमान और प्रत्येक द्रन्यको सीमाको बांधते हुवे ऐसे विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे लक्षित हो रहे भी सर्व द्रव्योंका, विचित्रताके विस्तारको प्रस्त करता हुमा, सर्व द्रव्योंमें प्रवृत्त होकर रहने वाला, और प्रत्येक द्रव्यको बँधी हुई भीमाको तोड़ता हुअा, 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य लक्षणभूत सादृश्यास्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिये । इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थोंका लक्ष करने वाला है । यदि वह ऐसा सर्वपदार्थपरामर्शी न हो तो कोई पदार्थ सत्, कोई असत्, कोई सत् तथा असत् और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह तथ्य वृक्षके दृष्टान्तको तरह सिद्ध कर लेना चाहिये। जैसे बहुतसे अनेक प्रकारके वृक्षोंके अपने अपने विशेष लक्षगाभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बनसे उस्थित होते (खड़े होते, अनेकत्वको, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है इसी प्रकार बहुतसे, अनेक प्रकारके द्रव्योंके अपने अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अबलम्बनसे उत्थिन होते अनेकत्वको, सामान्यलक्षरणभूत सादृश्यदर्शक 'सत्' पनेसे उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है । और जैसे उन वृक्षों के विषयमें सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उस्थित होते एकत्वसे तिरोहित हुअा भी RES
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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