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________________ २४२ सहजानन्दशास्त्रमालायां सविस्फुरित मुविशुद्ध सहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिध्वं सविस्फुरितसु विशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फः टिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपित विकारोऽहमेकान्तेनास्मि मुमुक्षुः इदानीमपि न नाम ममः कोऽप्यस्ति इदानीमप्यहमेक एव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि श्रहमेक एव च सुविशुद्ध चित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावे : नात्मा प्रायः कर्मारिम, श्रम एव च सुविशुद्ध चित्परिणामनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्व सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि । एवमस्य बन्धपद्धती मोक्षपद्धती चात्मानमेकमेव भावयत एक कृदन्त क्रिया । समणी श्रमण:- प्र० एक० । परिणमंद परिणमति लदि लभते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । अण्णं अन्यत् क्रि० एक० अप्पा आत्मानं सुद्धं शुद्ध द्वितीया एक० निरुक्ति--करो इस आशयको व्यक्त करनेके लिये काव्य कहते हैं- द्रव्यान्तर इत्यादि । श्रर्थ--- अन्य द्रव्य से भिन्नताके द्वारा हटा लिया है आत्माको जिसने तथा समस्त विशेषोंके समूहको सामान्य लोन किया है जिसने ऐसा जो यह, उद्धत मोहको लक्ष्मीको लूट लेने वाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेकके द्वारा श्रात्मस्वरूपको विविक्त किया हैं । अब शुद्ध द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करने वाले ग्रात्माको महिमा बताने के लिये काव्य कहते हैं इत्युच्छेदात् इत्यादि । श्रर्थ--- इस प्रकार परपरिणतिके उच्छेद से तथा कर्ता कर्म इत्यादि भेदोंकी भ्रांतिके नाशसे भी सुचिरकालसे जिसने शुद्ध श्रात्मतस्वको उपलब्ध: किया है, ऐसा विकासमान सहज महिमा वाला यह ग्रात्मा, चैतन्यमात्ररूप निर्मल तेजमें लोन होता हुआ सर्वदा मुक्त हो रहेगा । ग्रत्र द्रव्यविशेषके वर्णनकी सूचना के लिये श्लोक कहते है, द्रव्य इत्यादि । अर्थ--- इस प्रकार द्रव्यसामान्यका विज्ञान मूलमें है जिसके ऐसा मनोभाव करके, अब द्रव्यविशेष के परिज्ञानका विस्तार किया जाता है । प्रसंग विवरण ... प्रनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलको आत्मरूप से निश्चित किया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि सर्व स्थितियोंमें व सर्व कारकोंपें शुद्ध (केवल ) ग्रात्मतत्वकी ही उपलब्धि होती है । तथ्यप्रकाश--- ( १ ) वस्तुतः कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्यको परिणमाने में असमर्थ है । ( २ ) जो कर्ता करम कर्म व कर्मफल सब आत्मा ही है यह निश्चित कर लेता है वह परद्रव्यको परिणामानेका विकल्प ही नहीं करता । (३) जो अपने सब कारकोंमें स्वको हीं निरखता है और विकल्पमें भी परद्रव्यरूप नहीं परिणमता वहीं परसंपर्करहित विलीन पर्याय
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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