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________________ REAS .......... www प्रवचनसार-सप्तदशगो टोरा सपाहियदा सामानादिप्रसिद्धपोलिक बन्धनोपाधिसंनिधिप्रचावितोपरामरजितात्मवृतिबंगापुष्पसनिषिप्रधादिलोपरागरंजितात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव परारोपितविकारोऽहमासं समारो सदापि न नाम मम कोऽप्यासोत, तदाप्यहमेक एदोपरक्तचित्स्वभावेन स्वतन्त्र: कर्तासम्, अह. मक एकोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः कारणमासम्, अहमक दोपरक्तचित्परिणमनस्वभावे. मात्मना प्रायः कर्मासम्, अहमेक एव चोपरक्तचित्परिणामनस्वभावस्य निष्पाद्यं सौम्यविषय. लक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानीं पूनरनादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिअमण न एकः अन्यत् यदि आत्मन् शुद्ध । मूलधातु-परिनम नम्रीभावे, डुलभप प्राली । उभयपदविव कत्ता कुर्ता कम्मं काम फलं करणं अप्पा आत्मा-प्रथमा शकवचन । णिच्छिदो निश्चिनवान-प्रथमा * जपा कुसुमकी निकटतासे उत्पन्न हुई लालिमासे रंजिन स्फटिक मणिको भांति-दर के द्वारा रोपित विकार वाला होनेसे संसारी था, तब भी (प्रज्ञान दशामें भी) बास्तवमें मेरा कोई भी नहीं था। तब भी मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही विकृत चैतन्यरूप स्वभाव में स्वतन्त्र का था, मैं अकेला ही करण था, मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावके द्वारा साधकतम कारा था; मैं अकेला ही उपरक्त चित्परिणमन स्वभावके कारण अपने द्वारा प्राण कर्म था और मैं अकेला ही उपरक्त चित्परिणामन स्वभावका निष्पाद्य उत्पन्न सोख्यसे विपरीत लक्षणा वाला दुःख नामक कर्मफल था। और अब प्रतादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मको वंधन म्य सपाधिको सन्निधिके नाशसे जिसकी सुत्रिशुद्ध सहज स्वपरिगति प्रगट हुई है ऐसा मैं जपा. कसमको निकटताके नाशसे जिसकी सूविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो ऐसे स्फटिकमणि की भांति जिसका एरके द्वारा पारोपित विकार बंद हो गया है, ऐसा केवल मोक्षार्थी है। इस ममक्ष दशा में भी वास्तवमें मेरा कोई भी नहीं है। अभी भी मैं अकेला हो सूविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतन्त्र का हूं, मैं अकेला ही मुविशुद्ध नित्स्वभाव से सोधकतम करगा हूँ मैं अकेला हो मुविशुद्ध चित्परिणमन स्वभावसे प्रात्माके द्वारा प्राप्य कर्म हूं: और मैं अकेला ही मुदिशुद्ध चित्परिणामन स्वभावका निष्पाद्य अनाकुलता लक्षा वाला सीख्य नामक कर्मफल हूं। इस प्रकार बंधमार्ग तथा मोक्षमार्ग में अकेले प्रात्माको ही भाने वाले, एकत्वपरिणामनके उन्मुख परमाणुको तरह किसो समय परद्रव्यरूप परिम् ति नहीं होती । और एकत्वभाबसे परिणत परमाणुको तरह एकत्वको भाने वाला प्रात्मा परके साथ संबद्ध नहीं होता; तदनन्तर ५रद्रव्य के साथ असंबद्धताके कारण वह विशुद्ध होता है । और कती, करण कम तथा कर्मफलको मात्मरूपसे माता हा वह प्रात्मा पर्यायोंसे संकीर्ण नहीं होता; और इस कारण पर्यायों के द्वारा संकोगा न होनेसे सुविशुद्ध होता है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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