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________________ प्रवचनसार - राप्तवाङ्गी टीका १२१ वन प्रदीप्रकाशादिना कार्यं एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिराममानस्य सुखसाधनधिया अर्धमुचाध्यास्यमाना अपि विषया: कि हि नाम कुर्युः ॥६७॥ दृष्टि: सोक्खं सौख्यं अदा आत्मा-प्रथमा एक० । जइ यदि ण न तह तथा व स्वयं तत्त-अव्यय । कि अव्यय या हि एक जणस्स जनस्व-पष्ठी एक दीवेग दीपेन-तृतीया एक अन्य अस्तिवर्तमान सद अन्य एक क्रिया काय कर्तव्यं प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । विराया विस्या:-प्र०बहु ति कुर्वन्ति वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन ॥ ६७ ॥ कर्ता मानकर व्यर्थ हो विषयका प्राश्रय करते हैं । सिद्धान्त - (१) विषयोंको जीवसुखका कर्ता कहना मात्र उपचार है । (२) जीव अपनी सुखपरिमन शक्तिसे परिगता है । दृष्टि--- १- परकर्तृत्व उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार [१२], श्राश्रये आश्रयी उपचारक व्यवहार [१५१] । २- उपादानदृष्टि [४] । प्रयोग-परपदार्थको अपने सुखपरिणमनमें अकिञ्चित्कर जानकर और स्वयंको हो प्रानन्दस्वरूप पहिचानकर परविकल्पसे हटना और अविकल्प सहजानन्दधाम सहजचित्स्वभाव में उपयोग लगाना || ६७ ॥ अब आत्माका सुखस्वभावत्व दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं - [ यथा । जैसे [ नभसि ] Heart [ श्रादित्यः ] सूर्य [स्वयमेव ] अपने आप ही खुद [तेजः ] तेज [ उष्णः ] उस [च] और [देवता ] देव है [ तथा ] उसी प्रकार [लोके ] लोकमें [ सिद्धः अपि ] मिद्ध भगवान भी अपने आप ही स्वयं [ज्ञानं ] ज्ञान [सुखं च ] सुख [ तथा देवः ] और देव हैं । तात्पर्य- - भगवान स्वयं ही अनन्तज्ञानमय अनन्तानन्दमय और देवस्वरूप हैं । . टीकार्थ - जैसे आकाश में ग्रन्य कारणकी अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य स्वयमेव अत्यधिक प्रभा समुहसे चमकते हुए स्वरूपके द्वारा विकसित प्रकाशयुक्त होनेसे तेज है, और जैसे कभी उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले की तरह सदा उष्णतापरिणामको प्राप्त होनेसे उप है, और जैसे देवगतिनामकर्मके धारावाहिक उदयके वशवर्ती स्वभावगतेसे देव है, इसी प्रकार लोक अन्य कारणकी अपेक्षा रखें बिना हो भगवान श्रात्मा भी स्वयमेव स्त्रपरको प्रकाशित करने में समर्थ यथार्थ अनन्तशक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है, और उसी प्रकार मातृप्ति से उत्पन्न होने वाली परिनिर्वृत्तिसे प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य हैं, और उसी प्रकार जिन्हें आत्मतत्वकी उपलब्धि निकट है ऐसे बुधजनों मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसको अतिशय द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्मस्वरूपवान होने से देव है । इस कारण इस ग्रात्माको सुखसाधनाभासके विषयों बस हो । इस प्रकार यह आनन्दप्रकरण पूर्ण हुआ । अब यहां शुभपरिणामका अधिकार प्रारम्भ होता है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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