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________________ Ramnianwesomindwivintric प्रवचनसार-सप्तदझांगी टीका यदा नवधनाम्बु भूमिसंयोगेन परिण मसि तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यः शाद्वलशिलोन्ध्रश गोपादिभाद परिणमन्ते, तथा सदायमात्मा रागद्वेषवशोकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारा प्रविशन्तः कमपुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यानावरणादिभावैः परिणमन्ते । अतः स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न युनरात्मकृतम् ॥१८७॥ भाव । मूलधातु-परिणम प्रहरवे, प्रविश प्रदेशने । उभयपदविवरण-~-जदा यदा-अव्यय । अप्पा आत्मा रागदोस जुदो रहगद्वेषयुत....प्रथमा एकवचन ! सुहम्म भे असुहम्मि अशुभे-सप्तमी एक ० 1 तं-द्वि० एकर | परिगदि परिणति पनि सदि प्रविशति-वर्तमान अन्यक० किया। कम्मरयं कर्मर ज.--प्रथमा एक० । माणावणादिभाबेहि ज्ञानावरणादिभाव:-तृतीया बहुवचन । निरुक्ति--- रज्यते अनेन इति रज: समासरागश्च पाच रागद्वेषौ ताभ्यां युत: राग षयुतः ।।१८७।। स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार प्रात्माके शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गल. परिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त होते हैं । इसका स्पष्टीकरण--जैसे जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूपसे परिणमता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त हरियालो, कुकुरमुत्ता और इन्द्रगोप ग्रादि रूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह प्रात्मा राग द्वेषके वशीभूत होता हुग्रा शुभाशुभ भावरूप परिणमता है तब अन्य, योगद्वारोंले प्रविष्ट होते हुये कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त ज्ञानावरकादि भावरूप परिणामते हैं । इससे यह निर्णीत हुआ कि कर्मोकी विचित्रता होना स्वभावकृत है, किन्तु प्रात्मकृत नहीं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें प्रात्माका पुद्गलकर्मसे बन्ध व मोक्ष कैसे होता है इसका संकेत किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि बद्ध पुद्गल कमों में पुण्य पाप प्रादि विविधता किस कारणसे होती है ? तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्माके शुभपरिणामके समय बद्ध कर्मपुद्गलपरिणाममें विवि. पता स्वयं ही हो जाती है । (२) जैसे नवीन मेघजलका भूमिसंयोगरूपसे परिणमनेपर अन्य पुद्गल स्वयं ही हरी घास आदि व लाल पीले विविध कीट कायरूपसे परिणाम जाते हैं । (३) वैसे ही आत्मा जब रागद्वेषवश शुभ अशुभभावसे परिषमता है तब योगद्वारसे प्रवेश करने वाले कर्मपुद्गल स्वयं ही ज्ञानावरणादि व पुण्यपापादि नानारूपोंसे परिणाम जाते हैं। (४) निश्चयतः ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्पत्ति उन्हों पुद्गलोंके द्वारा होती है और मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति व पुण्यपापकी विचित्रता भी उन्हों पुद्गलोंके द्वारा होती है । (५) अात्माके द्वारा पुद्गलका कोई भी परिणमन नहीं होता । (६) कर्मबन्ध के लिये जीवविकार निमित्त. मात्र है। (७) जीवविकारके लिये कर्मविपाक निमित्तमात्र है। (4) धर्मानुरागरूप विशुद्ध परिणामका निमित्त पाकर शुभ प्रकृतियों में अमृत समान प्रकृष्ट अनुभाग होता है । (8) मोहा l S arls MAXSSS MANTRANSMILAAPAaning
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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