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________________ २८ सहजानन्दशास्त्रमालायां नन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं केलयन, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुविभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमारणत्वात् संप्रदानत्वं दधानः, शुद्धानंतशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्र वत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुरिणः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्न घातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गरणव्यग्रतया परतंत्रैर्भूयते ।। १६ ।। एव आत्मन् स्वयंभु इति निदिष्ट । मूलधातु-भू सत्तायां, मह पूजायां । उभयपदविवरण-तह तथा एव सयं स्वयं त्ति इति-अव्यय । सो सः-प्र० एक० । लद्धसहावो लब्धस्वभाव: सब्बण्ह सर्वज्ञः सव्वलोगपदिमहिदो सर्वलोकपतिमहितः आदा आत्मा सयंभू स्वयंभु-प्र० एक० । भूदो भूत:-प्र० ए० कृदन्त क्रिया। हवदि भबति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णि द्दिट्टो निर्दिष्ट:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया। निरुक्ति-सर्व जानाति इति सर्वज्ञः, स्वयं भवति इति स्वयंभुः) समास-लब्धः स्वभावः येन सः लब्धस्वभाव:, (सर्वलोकानां पतयः सर्वलोकपतयः तैः महितः।। १६ ।। जाता, किन्तु यही प्रात्मा शुद्ध अनन्तशक्तिमान ज्ञायकस्वभावी होनेके कारण स्वतन्त्रतया करता है । (२) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्यका काम नहीं है, किन्तु स्वयं ही शुद्ध अनंत ज्ञानादिरूप परिणमनेके कारण इसी आत्माका काम है । (३) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्य साधनासे नहीं बनता है, किन्तु शुद्ध अनंत ज्ञानादिरूप परिणत होनेके स्वभावके कारण परम साधनरूप स्वयंसे हो बनता है। (४) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी दूसरेके लिये नहीं होता है, किन्तु शुद्धात्मस्वभावका फल परमसहजानंद स्वयं ही आत्मा पाता है, अतः वह लाभ स्वयं के लिये होता है। (५) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी दूसरेके लिये नहीं दिया जाता है, किंतु वह शुद्धात्मस्वभावलाभ स्वयंके लिये ही देने में आता होनेसे स्वयं के लिये ही दिया जाता है । (६) शुद्धात्मस्वभावलाभ किसी अन्यसे नहीं निकलता है, किन्तु ध्र व सहज चैतन्यस्वभावमय इसी प्रात्मासे प्रकट होता है । (७) शुद्धात्मस्वभाव किसी अन्य में नहीं होता, किन्तु शुद्धात्मस्वभावकी प्रकटताके परिणमनका आधार स्वयं ही यह प्रात्मा है, इसी स्वयं प्रात्मामें शुद्ध।त्मस्वभावलाभ होता। (८) शुद्धात्मस्वभावलाभ सजातीय विजातीय समस्त द्रव्यान्तरोंसे अत्यन्त निरपेक्ष है। (8) शुद्धात्मस्वभावलाभ स्वयं ही स्वयंमें स्वयंसे स्वयंके लिये स्वयं के द्वारा होता है, अतः यह लाभ अत्यन्त स्वाधीन है । (१०) अपने वास्तविक लाभके लिये अन्य सामग्री ढुंदनेसे लाभ हो ही नहीं सकता । (११) शुद्धात्मस्वभावके लाभके लिये अन्य सामग्री
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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