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________________ secs ४६८ सहजानन्दशास्त्रमालायां a HIMAnamp40SARHARAT ankimkinatomonalis Raman कनिविष्टीः कषायकुण्ठीकृतशक्तयो नितान्तमुत्कण्ठूलमनसः श्रमणाः किं भयेशुन वेत्यत्राभिधी. यते । 'धम्मेण परिणदप्या अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि सिम्बाणसुहं सुहोब जुत्तो व सग्गनुहं' इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण स हैकार्थसमकामः । तत: शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किंतु तेषा शुद्धोपयोगिभिः समं समात्वं न भवेत. यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनासवा एव । इमे पुनरनवकी कषाय कमा - त्वात्सालवा एव । अत एव च शुद्धोपयोगिभि। समममी न समुच्चीयन्ते कवल मन्त्राची यन्त एवं ॥२४५।। मूलपातु--भू सत्तायां । उभयपदविवरण- समणा क्षमणा: सुद्धब जुत्ता होगयुक्ता; सुहाबजुत्ता भो पयुक्ताः अणास वा अमानवाः सासवा सारवा: सेसा शेषा:-प्रथमा बहवसन यचवि -अध्यय। समरिह समये-गप्तमी एक । तेसु तेषु-सप्तमी बहुवचन । होति भवन्ति-वर्ल० अन्यः यह विया । निरुक्ति- आ स्त्रवणं आखवः (जा स्त्र + अप)। समास-४ उपयुक्ताः शुद्धोपयुक्ताः, शुभे उपयुक्ताः शुभपयुक्ताः ॥२४॥ निकट निविष्ट और क्षायसे कुण्ठित शक्ति वाले तथा अत्यन्त उत्कण्ठित मान बाले श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जा रहा है—धम्मेण परिणदप्या अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पाबदि णिव्वासहं महोबजुत्तो व सग्गसुहं ।। इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने ११वो गाथामें) स्वयं ही निरूपित होनेसे शुभोपयोगका धर्म के साथ एकार्थसमवाय है । इस कारण शुभोपयोगी भी, उनके धर्मका मद्भाव होनेसे श्रमण हैं। किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समा कोटिके नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होनेसे नित्रिव हो है और ये शुभोपयोगी तो कबायकरणके विनष्ट न होने से सासद ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयो. गियों को साथ इन्हें शुभोपयोगियों को एकत्रित नही लिया जात्ता, मात्र पोछेसे गौशाला में ही लिया जाता है। प्रसङ्गविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें ऐकायके हो मोक्षमार्गपना निश्चित करके मो. क्षमार्ग प्रज्ञापन कर दिया गया था। अब इस गाथामें शुभोपयोगका प्रज्ञापन प्रारम्भ हुआ है। तथ्यप्रकाश-----(१) श्रमण शुद्धोपयोगी भी होते हैं, शुभोपयोगी भी होते हैं । (२) जो श्रमरण शुभोपयोगी हैं वे सदा शुभोपयोगी रहैं अल्पसमयको भी कभी शुद्धोपयोगी न हो ऐसा नहीं है, किन्तु प्रधानताकी दृष्टि से शुभोपयोगी हैं.। (३) जो पुरुष श्रामण्यपरिगतिको प्रतिज्ञा करके भी कवायकरण जीवित रहने से पूर्ण निवृत्ति नहीं पा सकते व दर्शन ज्ञानस्वभाव प्रात्मतत्त्वमें वृत्ति नहीं कर सकते, शुद्धोपयोगको भूमिकापर नहीं चढ़ पा रहे वे भी श्रमण हैं। (४) शुभोपयोगी श्रमण शुद्धोपयोगकी भूमिकाके निकट बैठे हैं, अतः श्रमरण ही हैं। (५) o mwww SavantIA33000 wes
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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