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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां २६८ अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरङ्गमासूश्रयति--- यदा कम्ममलिमसो घरेदि पाणे पुणो पुणो ण्यो । गण चयदि जाव ममत्तं देहपधागोसु विसयेसु ॥ १५०॥ कर्म लोभस आत्मा, पुनः पुनः अन्य प्रारण धरता है । देह विषय भोगोंमें, जब तक न ममत्व यह तजता ॥ १५० ॥ आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणाद पुनः पुनरन्यान् । न त्यजति पावन्ममत्वं देहधानेसु विषयेषु । १५० | येयमात्मनः पीद्गलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः तस्या श्रनादिपोद्गलकर्ममूल, शरीरादिममस्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ।। १५० ।। नामसंज्ञ--अत्त कम्ममलीमस पाण पुणो अष्ण ण जाव ममत्त देहपधाण विसय । धातुसंज्ञ - घर धारणे, च्चय त्यागे । प्रातिपदिक-आत्मन् कर्ममलीमस प्राण पुनर् अन्य न यावत् ममत्व देहप्रधान विषय । मूलधातु धर् धारणे, त्यज त्यागे । उभयपदविवरण- आदा आत्मा कम्ममलिमसो कर्ममलीमसः -- प्रथमा एकवचन । धरेदि धारयति चयदि त्यजति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पाये प्राणान असे अन्यान् द्वितीया बहुवचन । पुणो पुनः ण न जाव यावत् अव्यय । ममत्तं ममत्वं द्वि० एक । देहाचासु देप्रधानेषु विसयेसु विषयेषु सप्तमी बहुवचन । निरुक्ति- मलले धारयते दुर्दशां इति मलम् मलेन युक्त: मलीमसः । समास- कर्मणा मलीमसः कर्ममलीमसः देहः प्रधानं येषु ते देहप्रधानाः तेषु देहभानेसु ॥ १५० ॥ टीकार्य - प्रात्माकी पौगलिक प्राणोंकी संतानरूप जो यह प्रवृत्ति है, उसका प्रन्तरंगहेतु शरीरादिका ममत्वरूप उपरक्तपना है, जिसका मूल निमित्त अनादि पौगलिक कर्म हैं । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में प्राणोंका पौगलिककर्मकार पना बताया गया था। अब इस गाथा में यह बताया गया है कि पोद्गलिक प्रारणोंकी परम्पराकी प्रवृत्ति क्यों होती भाई है उसका अन्तरङ्ग कारण क्या है ? सथ्यप्रकाश - १ - यह भ्रातमा स्वभावतः कर्ममलसे विविक्त होनेसे अत्यन्त निर्मल. स्वरूप वाला है । २- यह जीव पर्यायतः प्रनादि कर्मबन्धनवश होनेसे मलिन है । रागद्वेषमोहविकार मलिन यह जीव बार बार अन्य अन्य पोद्गलिक प्राणोंको धारण करता रहता है । ४- इन पौद्गलिकप्राणोंकी संतानसे जो प्रवृति चली आ रही है उसको मूल निमित्त कारण प्रनादिप्रवृत्त पौगलिक कर्म है, किन्तु शरीरादिसे ममत्वरूप उपराग अन्तरङ्ग कारण है। ५- जब तक देहादिक विषयोंमें ममत्वरूप उपराग नहीं छूटेगा तब तक पौग fe प्राणोंकी संतति बनी रहेगी । ६- सर्व क्लेशोंका मूल यह पौद्गलिक प्राणसंयोग है । सिद्धान्त - १ इन्द्रियप्राण व बलकारण पुद्गलका निमित पाकर होनेसे पौगलिक
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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