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________________ ANUSICAERE m aiIAssococe mtimarathiammmmshimami १२६ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथवमिन्द्रियमुखमुक्षिप्य दुःखत्वे प्रक्षिपति----- मोक्वं महावसिद्ध गास्थि मुगणं पि सिद्धमुवदसे । ते दहवेदणहा रमंति विमएम रम्मेमु ॥ ७१ ॥ स्वाभाविक सुख देवों, के भी नहीं आगमोक्त हैं वे तो। देहेन्द्रियपीछावश, रम्य विषयोंमें रमते हैं। ७१ ।। सोन्य बिमामलं नाति सुत्राणामपि समुपदेशे। त दहबदनाता रमन्द्र मिया रम्येप ।। ६१ इन्द्रियमवभाजने हि प्रधाना दिवौकसः, तेकामपि स्वाभाविक न बनु सुखमस्ति प्रत्युत तेषां स्वाभाविक दुःख मेवावलोयते । यतस्त पञ्चेन्द्रियात्मक शरीरपिशाचोडया परवशा भूगुप्रभातस्थानीयान्मनोज्ञविषयान भियतन्ति ।। ७१ ॥ नामसंज्ञ.. गोद महाविद ए म राम मिल ज्वदेश ते दहवेदणट्टा बिमाम रमन । धातुसंजअस बतायां, रम क्रीडायां, घर ऐश्वयंदीप्त्योः । प्रातिपदिक.....मौख्य स्वभावमित सुरपि निक उपदेश नत वेदना विषय रम्य । मूलधातु--अम् भुत्रि, रमु क्रीडायां । उभयपदविवरण-दोन मौल्य बहावमिदं स्त्रभावसिद्ध मिड-प्रथमा एक ! उवद उपदेशे-सातमी एकः । ते दहा वेदना:-प्रथमा. बहु । रमति रमन्ते-यतमान लट् अन्य पुरुा बहुवचन क्रिया । विसएस विषयेए रम्मम् रम्या-गप्तमी बहुवचन निरुक्ति ... सरन्तीनि साना रन्न बाध्य तम्य । समास-स्वभावेन मिटवभावमई(दहस्य वेदना हवेदना नया आगः ||१| प्रयोग--इन्द्रिय मुखको व इन्द्रियमुम्बके साश्वत भूत शुभोपयोगको हय जानकर परम उपादेय दाद्धोपयोगके प्राश्रयभूत निज सहज अन्तस्तत्वमें उपयुक्त होना ।।5011 इस प्रकार इन्द्रियमुख की बात उठाकर अब उसे दुःखरूपमें प्रशिक्षित करते हैं-[उप. देशे सिद्ध] (जिनेन्द्रदेवके) उपदेशले सिद्ध है कि [सुराणाम् अपि देवों के भी स्वभाव सिद्ध स्वभावसिद्ध [सौख्यं] मुख [नास्ति नहीं है, [ते] वे [देह वेदनाता] (पंचेन्द्रियमय) दहकी वेदनासे पीड़ित होनेसे [ रम्येषु विषयेषु] रभ्य विषयों में [रमन्ते रमते हैं। टोकार्थ--इन्द्रियमुखके अधिकारियों में प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सूस नहीं है, प्रत्युत उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीर रूपो पिशाचकी पीड़ासे परवश होते हुए शिखर से गिरने के समान मनोज्ञ विषयों की ओर दौड़ते TITIONS प्रसङ्गविवरण----प्रनंतर पूर्व मायामें बताया गया था कि इन्द्रियमुख शुभोपयोग द्वारा साध्य है । अब इस गाथामें इन्द्रियसुखको उखाड़कर दुःखपने में फेंका गया है । तथ्यप्रकाश-१- इन्द्रिय सुख जिन जीवोंको मिला है उनमें सर्वाधिक इन्द्रियमुख
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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