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________________ SSS । । प्रवचनसार---सप्तदशाङ्गी टीका १६६ प्रथानुषङ्गिाकोमिमामेव स्वसमयपरसमयध्यवस्था प्रतिष्ठाग्योपसंहरति जे पन्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा । थादसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥४॥ जो पर्यायनिरत हैं, उन जीवोंको परसमय बताया । आत्मस्वभावस्थित जो उनको हो स्वकसमय जानो ॥६४|| ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसभयिका इति निर्दिष्टाः । आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।४। ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेक मूलमुपगता यथो. दितात्मस्वभावसंभावनक्लोवास्तस्मिन्नेवासक्तिमुपद्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममवतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यो विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य क्रोडोकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येगा कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते । ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुण नामसंज्ञ- पज्जय णिरद जीव परसमयिंग त्ति णिट्ठि आदसहाव ठिद त परसमय मुगणेदवव । धातुसंज-मुण ज्ञाने । प्रातिपदिक-यत् पर्याय निरत जीव परसमयिक इति निर्दिष्ट आत्मस्वभाव स्थित निमित्त पाकर होनेसे विविध विकाररूप होते हैं जैसे क्रोध, मान, मतिज्ञान आदि । (१५) परमेश्वर अर्हन्तदेवकी दिव्यध्वनिसे प्रकट द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपकी व्यवस्था उक्त प्रकार ही समोचीन है, अन्य कोई व्यवस्था स्वरूपसंगत नहीं। (१६) द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपको सही व्यवस्था जिनको निर्णीत नहीं वे पर्यायमात्रका पालम्बन करके तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप मोहको अपनाकर मिथ्यादृष्टि रहते हैं । ( १७) द्रव्यगुणपर्यायके स्वरूपकी सही व्यवस्था जिनको निरणीत हो चूकी वे अध्र व पर्यायों में मुग्ध न होकर ध्र व सहज ज्ञानस्वभावमय निज अन्तस्तत्त्वके अभिमुख होकर अपने में अपनेको सम्यक् अवलोकन कर सम्यग्दृष्टि रहते हैं । सिद्धान्त----(१) पर्यायको अपना आत्मसर्वस्व मानने वाले जीव परसमय प्रथवा मिथ्याष्टि हैं। दृष्टि-१-- विजात्यसद्भुत व्यवहार (६८)। प्रयोग---द्रव्यगुणपर्यायरूपसे पदार्थको यथार्थ जानकर अध्र व व्यतिरेक व भेदसे उपयोगको हटाकर ध्र व अन्वयी अभेद प्रात्मचैतन्यस्वरूपमें प्रात्मत्वको अनुभवना ॥३॥ ___ अब आनुषंगिकी इस ही स्वसमय-परसमयकी व्यवस्थाको प्रतिष्ठित करके (उसका) उपसंहार करते हैं--[ये जीवाः] जो जीव [पर्यायेषु निरताः] पर्यायों में लीन हैं [परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः] वे परसामयिक कहे गये हैं, [आत्मस्वभावे स्थिताः] और जो जीव
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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