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________________ अट susalemstrsana ARRESEREE R HRARUHAGRA प्रवचनसार-गप्तदशाङ्गी टीका अय गुभोपयोगजन्य फलवत्पुण्यं विशेषेण दूषणार्थमभ्युपगम्योत्थापयति-- कुलिसाउहचकधरा सुहोवयोगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥७३॥ वनधर चक्रदर भी, शुभोपयोग फलरूप भोगोंसे । सुखकल्पो भोगनिरत, देहादिक पुष्ट करते हैं ॥७३॥ अलिशायुन चक्रधराः शुभोपबोगात्मक: भोगैः । देहादीनां वृद्धि कुर्वनिय सुस्थिता वाभिरताः ।। ७३ ।। यतो हि शक्राश्चक्रिरणा व स्वेच्छोपगत गैः शरीरादीन पुष्णान्सस्तेषु दुष्टशोणित इव जलोकसोज्त्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते । ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्ति पुण्यान्यवलोषयन्ते ।।७.३।। मामसन- कलिसाउहचवर सुहोवोगप्पग भोग दहादि विद्धि हिंद इव अभिरद । धातुसंज.... १ करो। प्रातिपदिक कुलिशायुश्चक्रधर शुभोपयोगात्मक भोग दक्षादि वृद्धि सुखित इव अभिरत । समान इकन करणे । उभयपदविवरण-लिसाउहचक्काघरा कलिशायुधचत्रधर): सुहोवओगप्पगा मिापयोगात्मका, सहिदा सखिताः अभिरदा अभिरता:-प्रथभा वह । भोगेहि भोग-तृतीया वह । देहालोग वहादीना-षष्ठी बहु । विद्धिन्द्धि-द्वितीया एक० करेंति कुर्वन्ति-वर्तमान अन्य० एक क्रिया । मिति वनं वृद्धिः 1 समास---कुस्लिश आयुध वेषां ते कुलिशायुधा, धरन्ति इति चाधराः) कुलिमायुधापन चक्रवराश्चेति कुलियायुधचक्रधराः ।। ७३ ।। असूलक भोगीके द्वारा विहादीनां] देहादिकोंकी [वृद्धि कुर्वन्ति] पुष्टि करते हैं और [अभिरताः] इस प्रकार) भोगों में रत वर्तते हुए [सुखिताः इव] सुखी जैसे मालूम होते हैं । तात्पर्य इन्द्र चक्री जैसे बड़े लोग भी शुभोपयोगहेतुक पुण्यके फल भोगोंको भोगते । भोगामें रत होते हुए सुखी जैसे लगते हैं, किन्तु वह सब होता नहीं है। टीकार्थ चाकि शुक्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगोंके द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए दूषित रक्तमें प्रत्यन्त प्रासक्त वर्तती हुई जोककी तरह उन भोगों में अत्यन्त वासक्त वर्तते हुए सुखी जैसे प्रतिभासित होते हैं, इससे शुभोपयोगजन्य फलवान पुण्य दिखाई प्रसंगविवरण---अनंतरपूर्व गाथामें शुभोपयोग क अशुभोपयोगमें अविशेषताका अवधामरण कराया था। अब इस गाथामें शुभोपयोगजन्य फलवान पुण्यका दूषण प्रसिद्ध किया गया FEE सभ्यप्रकाशः-(१) इन्द्र, चक्री आदि बड़े प्राणी भोगों द्वारा शरीर प्रादिको पुष्ट करते हुए भोगों ग्रासक्त होते हैं । (२) भोगासक्त इन्द्र चक्री प्रादि सुखी जैसे लगाते हैं, NIONLILAadisonam
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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