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________________ प्रवचनसार-सप्तदशानी टीका ४४३ कस्येवावको विवेकस्याविविक्तन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चितशरीरादिद्रव्यूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावादर्य परोऽयमात्मेति ज्ञान सिद्धयत् । तथा च त्रिसमयपरिपाटीप्रकटिवविचित्रपर्यायप्रारभारागाध. गम्भीर स्वभाव विश्वमेव ज्ञेयीकृत्य प्रतपता परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावात् एक: | वियाणादि विजानाति खबेदि क्षपर्याप्त वर्तमान अन्य ० एक० क्रिया । कम्माणि कर्माणि अटें अर्थान-द्वि० बहु० । किंध कथं- अव्यय । निरुक्ति- भिक्षतीति भिक्षुः भिक्ष भिक्षायां (भिक्ष + उ)। जिसके ऐसे इस जीवके प्रविविक्त ज्ञानज्योतिसे देखनेपर भी स्वपर निश्चायक प्रागमोपदेश पूर्वक स्वानभवके प्रभाव के कारण, आत्मामें और प्रात्मप्रदेशस्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा । उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादि भावों में यह पर है और यह स्व है' ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता । तथा उसी प्रकार परमात्माका निश्नय कराने वाले प्रागम के उपदेशपूर्वक स्वानुभवका प्रभाव होनेसे त्रिकाल परिपाटीमें विचित्र पर्यायोंका समूह प्रगट हुअा है जिसके ऐसे भगाध। गम्भीरस्वभाव विश्वको शेषरूप करके प्रतपित ज्ञानस्वभावी एक परमात्माका ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता। सो परात्मज्ञानसे तथा परमात्मज्ञानसे शून्य पुरुषके, व द्रव्यकर्मसे होने वाले शरीरादिके साथ तथा तत्प्रत्ययक मोहरागद्वेषादि भावोंके साथ एकताका पनुभव करने वाले पुरुषके वध्यधातकविभागका अभाव होनेसे मोडादि द्रव्य भाव कोका क्षय सिद्ध नहीं होता, तथा ज्ञेयनिष्ठतासे प्रत्येक वस्तुके उत्पाद विनाशरूप परिणत होने के कारण अनादि संसारसे परिवर्तनको पाने वाली ज्ञप्तिका परमात्मनिष्ठताके अतिरिक्त अनिवार्य परिवर्तन होनेसे, ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्मोका क्षय भो सिद्ध नहीं होता। इस कारण कर्मक्षयाथियों को सर्वप्रकारसे प्रागमको पर्युपासना करना चाहिये । प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें श्रामण्यको सिद्धि के लिये उसके मूल साधनभूत मागमके ज्ञान करनेका उपदेश किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि आगमज्ञानरहित पुरुषके मोक्षनामक कर्मक्षपण संभव नहीं है। तस्यप्रकाश-(१) प्रागम ज्ञान के बिना स्व व पर प्रात्माका ज्ञान नहीं होता। (२) भागमज्ञानके बिना परमात्मत्व का ज्ञान नहीं होता। (३) स्वपरज्ञानशन्य जीवके व परमात्मत्वज्ञानशून्य जीवके मोहादि द्रव्यकोका, मोहादिभावकर्मोंका व ज्ञप्तिपरिवर्तरूप को का क्षय नहीं होता । (४) मोहनीयादि सब कोंको द्रव्य कर्म कहते हैं । (५) मोहादिक जीव विकारोंको भावकम कहते हैं । (६) एक शेषरे दूसरे ज्ञेयमें ज्ञानके बदलनेको ज्ञप्तिपरिवर्तरूप कर्म कहते हैं । (७) भागमहीन जीब मोहमलोमस है सो वह मद्यपायो पुरुषकी तरह उन्मत्त Sinche
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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