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________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका ae aourteoraaruघ्रौव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण चिन्तयतिपरिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणतरं सदविसिद्धं । तम्हा गुगपज्जाया भणिया पुरा दव्वमेव त्ति ||१०४ ॥ द्रव्य स्वयं परिणमता, गुणसे गुणांतर तदपि सत् वह हो । इससे गुरण पर्यायें, सकल उसी द्रव्यरूप कही ॥ १०४ ॥ परिणमति स्वयं द्रव्यगुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् । तस्माद् गुणपर्याय भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ॥ १०४ ॥ एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् । यथा किल सहकारफलं स्वयमेव हरितभावात् पाण्डुभावं परिणमत्पूर्वोतर प्रवृत्त ૨૭ पाण्डुभावाभ्यामनुभूतात्मसत्ता हरितपाण्डुभावाभ्यां सममविशिष्टसत्ता कतयैकमेव वस्तु न वस्त्वन्तरं तथा द्रव्यं स्वयमेव पूर्वावस्थावस्थित गुण । दुत्तरावस्थावस्थितगुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्यावस्थितगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताकं पूर्वोत्तरावस्थावस्थितगुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ता नामसंज्ञ - सयं दव्य गुणदोय गुणंतर सदवस त गुणपाय शणिय पुर्ण दव्व एव त्ति । धातुसंज्ञपरि म प्रत्वे, भग कथने । प्रातिपदिक स्वयं द्रव्य गुणतः गुणान्तर सदवशिष्ट तत् गुणपर्याय भणित पुनर द्रव्य एव इति । मूलधातु-परि णम प्रहृत्वे, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण परिणमदि परिण मति - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । एव त्ति इति सयं स्वयं य च गुण पुनः अभ्यय । दव्वं द्रव्यं द्वारा अनुभव किया है अपनी सत्ताको जिसने ऐसा ऐसा श्राम्रफल हरितभाव और पोतभाव के साथ प्रविशिष्ट सत्ता वाला होनेसे एक हो वस्तु है, अन्य वस्तु नहीं; इसी प्रकार स्वयं ही पूर्व भवस्था में अवस्थित गुणसे उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणामित होता हुआ, पूर्व और उत्तर प्रस्थामें अवस्थित उन गुणोंके द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव किया है जिसने ऐसा द्रव्य पूर्व मौर उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणोंके साथ अवशिष्ट सत्ता वाला होनेसे एक ही द्रव्य है। द्रव्यान्तर नहीं । श्रौर, जैसे पोतभावसे उत्पन्न हो रहा, हरितभावसे नष्ट हो रहा, और ग्राम्रफलरूपसे स्थिर हो रहा आम्रफल एक वस्तुको पर्यायके द्वारा उत्पाद-व्यय-प्रोव्य है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणसे उत्पन्न, पूर्व अवस्था में अवस्थित गुणसे नए और द्रव्यत्व गुणले स्थिर होनेसे द्रव्य एक द्रव्यपर्यायके द्वारा उत्पाद व्यय श्रीव्य है । प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायद्वारसे द्रव्यके उत्पाद व्यय घोषों का विचार किया था। अब इस गाथामें एक द्रव्पपर्यायद्वारसे द्रव्यके उत्पाद व्यय प्रोव्योंका विचार किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) गुणपर्यायें एक द्रव्यकी पर्याये हैं, क्योंकि गुणपर्यायें एक द्रव्यके रूप है। (२) द्रव्य स्वयं अकेला ही पूर्वगुणपर्यायसे हटकर उत्तरगुणपर्यायरूप परिणमता हुमा
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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